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हाथी को महंगे पड़ रहे साथी... गठबंधन से तौबा क्यों कर रही हैं मायावती?

बसपा अध्यक्ष मायावती ने इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल के साथ गठबंधन नहीं करने का फैसला किया है. बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मायावती क्यों गठबंधन से बच रही हैं और क्या सियासी मजबूरी है कि अकेले चुनावी मैदान में उतर रही हैं?

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बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती

लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है, जिसका सेमीफाइनल इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव को माना जा रहा है. ऐसे में सियासी पार्टियां अपने सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने और राजनीतिक गठजोड़ बनाने की कवायद शुरू कर दी है. नीतीश कुमार से लेकर केसीआर और कांग्रेस तक अपने-अपने स्तर से विपक्षी एकता बनाने के लिए राजनीतिक तानाबाना बुन रहे हैं तो बसपा प्रमुख मायावती ने किसी से गठबंधन करने के बजाय एकला चलो की राह पर चलने का फैसला किया है. 

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मायावती ने अपने 67वें जन्मदिन पर ऐलान किया कि 2023 में होने वाले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी. कांग्रेस या अन्य किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी. उन्होंने यह बात कांग्रेस के साथ बसपा गठबंधन में चर्चांओं पर कहा. हालांकि, मायावती ने अकेले चुनावी मैदान में लड़ने का निर्णय ऐसे समय लिया है जब गठबंधन की सियासत तेज है. ऐसे में सवाल यही है कि मायावती के 'एकला चलो' ऐलान के सियासी मायने क्या हैं?

देशभर के राज्यों में कम हुआ बसपा का आधार

दरअसल, बसपा का सियासी आधार उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देशभर के राज्यों में भी कम हुआ है. यूपी चुनाव में आंकड़ों पर गौर करें तो बसपा का वोटबैंक 2012 में करीब 26 फीसदी, 2017 में 22.4 और 2022 में 12.7 फीसदी पर पहुंच गया है. इस तरह से चुनाव दर-दर चुनाव बसपा का सियासी आधार कमजोर हुआ है. ऐसे में मायावती दलित-मुस्लिम वोटों के फॉर्मूले पर एक बार फिर से काम कर रही है ताकि दोबारा से खड़ी हो सकें. 

 

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वहीं, कांग्रेस नेता राहुल गांधी इन दिनों 'भारत जोड़ो यात्रा' के जरिए अपनी पार्टी के खिसके सियासी जनाधार को दोबारा से वापस लाने की कोशिशों में जुटे हैं. कांग्रेस की नजर यूपी में अपने पुराने वोटबैंक दलित और मुस्लिमों पर है. इस तरह कांग्रेस और बसपा दोनों ही दलों में दलित-मुस्लिम वोटों के वापसी की बेचैनी साफ दिखाई दे रही है, जिसकी वजह से गठबंधन की चर्चा तेज हो गई थी. ऐसे में मायावती ने गठबंधन के कयासों को खारिज करते हुए रविवार कहा, 'ऐसा मैं इसलिए कह रही हूं, क्योंकि कांग्रेस पार्टी अभी से गठबंधन का गलत प्रचार करने लगी है.' 

नेगोशिएशन की स्थिति में नहीं मायावती

वरिष्ठ पत्रकार अनुपम मिश्रा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा के पास एक विधायक है. ऐसे में मायावती अभी नेगोशिएशन की स्थिति में नहीं है, जिसके दम पर गठबंधन में अपनी भूमिका को मजबूती के साथ रख सके. बसपा शहरीय निकाय चुनाव में अपनी ताकत को बढ़ाना चाहती है. 2017 में बसपा पश्चिमी यूपी में दलित-मुस्लिम वोटों के दम पर दो नगर निगम में अपना मेयर बनाया था जबकि सपा खाता भी नहीं खोल सकी थी. मायावती इस बार भी उसी रणनीति पर है और अपनी बार्गेनिंग पोजिशन को बढ़ाना चाहती हैं.  

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वह कहते हैं कि मायावती के बयान पर मत जाइए, क्योंकि बसपा हर एक चुनाव से पहले ऐसी ही गठबंधन नहीं करने से मना करती है, लेकिन बाद में मिलकर चुनाव लड़ती है. 2018 में मायावती ने साफ मना कर दिया था और 2019 के चुनाव में सपा से साथ मिलकर लड़ी थी. बसपा फिलहाल अकेले दम पर 2024 के चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का बसपा हिस्सा होगी और उसमें आरएलडी भी शामिल रहेगी. 

बसपा का फोकस- अपने सियासी आधार को मजबूत करना

लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद कासिम भी मानते हैं कि 2024 का लोकसभा चुनाव अभी दूर है, ऐसे में मायावती अभी से अपने पत्ते नहीं खोलना चाहती है, क्योंकि अभी बसपा की पोजिशन वह नहीं है, जिसके दम पर बार्गेनिंग कर सकें. बसपा का फोकस फिलहाल अपने सियासी आधार को मजबूत करना है ताकि गठबंधन में मायावती की भूमिका अहम रहे. बसपा बिना गठबंधन के 2024 के चुनाव लड़ने का जोखिम भरा कदम नहीं उठाना चाहेगी, क्योंकि अब सियासत बदल चुकी है. इसी के साथ यह भी बात है कि बसपा को लिए बिना बीजेपी को चुनौती नहीं दी सकती है. इस बात को मायावती के साथ विपक्षी भी बाखूबी समझता है. 

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सैय्यद कासिम कहते हैं कि विपक्ष के तमाम राजनीतिक दलों के नेता ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स के रडार पर हैं. ऐसे में जैसे ही गठबंधन की सुगबुगाहट शुरू हुई होगी, वैसे ही विपक्षी दलों के कुछ नेताओं पर ईडी और सीबीआई के छापे पड़ने शुरू हो जाएंगे. ऐसे में मायावती अभी इस तरह के कोई संकेत नहीं देना चाहती हैं कि वह किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होना चाहती हैं. वे अभी खुद को ईडी, सीबीआई से सुरक्षित रखना चाहती हैं. इसलिए मायावती ने अपने जन्मदिन पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, लेकिन इससे गठबंधन की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाती है. 

कांग्रेस के वोटबैंक पर सपा और बसपा का सियासी आधार

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि मायावती ने रविवार को गठबंधन जो बातें कही है. वह कांग्रेस के संदर्भ में बोला, क्योंकि अखिलेश यादव पहले ही बसपा से गठबंधन करने से इनकार कर चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस ही बचती है, लेकिन यूपी में उसके पास फिलहाल कोई सियासी आधार रह नहीं गया है. ऐसे में मायावती को लगता है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन का कोई राजनीतिक फायदा हो नहीं सकता है तो गठबंधन क्यों किया जाए. बसपा और सपा का सियासी आधार कांग्रेस के वोटबैंक पर ही खड़ा है. मायावती को एक आशंका है कि यूपी में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से उसे पुनर्जीवित होने में मौका मिलेगा. मायावती को यह डर है कि अगर दलित वापस कांग्रेस में लौटता है तो बसपा का वजूद खतरे में पड़ जाएगा. इसलिए मायावती ने सीधे तौर पर किसी भी गठबंधन में जाने की संभावना को खारिज कर दिया. खासकर कांग्रेस के साथ.  

 

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सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा के बीच पिछले दो महीनों से विपक्षी एकता की बात हो रही है. इसी दरम्यान चर्चा थी कि लोकसभा चुनाव बसपा और कांग्रेस मिलकर यूपी में लड़ेंगे, क्योंकि दिल्ली में मायावती के पार्टी एक सांसद भी शिरकत किए थे. कांग्रेस और बसपा के एक साथ आने से दलित और मुस्लिम एकजुट हो सकता है, निश्चित तौर पर इसका फायदा दोनों पार्टियों को मिलेगा, लेकिन यह बात मायावती को बेचैन भी कर रही है, क्योंकि कांग्रेस के दोबारा से मजबूत होने से फिर सबसे ज्यादा खतरा सपा और बसपा को ही होगा. इसीलिए गठबंधन से कतरा रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस का बहुत ही कमजोर स्थिति में फिलहाल यूपी में है. 

दलित-मुस्लिमों का विश्वास जीतने में जुटे राहुल गांधी 

दरअसल, कांग्रेस इन दिनों अपने कोर वोटबैंक दलित-मुस्लिम समुदाय को फिर से जोड़ने की मुहिम पर है. कांग्रेस इसी के चलते दलित समाज से आने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष और बृजलाल खाबरी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंप रखी है. वहीं. राहुल गांधी अपने भारत जोड़ो यात्रा के जरिए बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ मुखर हैं. इस तरह से राहुल गांधी दलित-मुस्लिमों का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं. 

उत्तर प्रदेश में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान तमाम दलित समुदाय के लोग भी शामिल हुए थे, जिनमें चंद्रभान, प्रो. रतन लाल, राजेंद्र वर्मा, डा. सूरज मंडल, एनके चंदन, धर्मेंद्र कुमार और रविकांत जैसे कई दलित एक्टिविस्ट थे. भीम आर्मी के लोग भी राहुल की यात्रा में शिरकत किए थे. महंगाई और बेरोजगारी के साथ साथ राहुल गांधी दलित, आदिवासी और पिछड़ों के मुद्दों पर बहुत मुखर हैं. इस तरह से कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिए यूपी में एक बार फिर से अपने पुराने वोटबैंक को साधने की कवायद की.

संविधान और आरक्षण को बचाने के लिए जो भी लड़ेगा, हम उसके साथ: रतन लाल

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दलित एक्टिविस्ट रतन लाल कहते हैं कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं. संविधान और आरक्षण को बचाने के लिए जो भी लड़ेगा, हम उसके साथ हैं. कांग्रेस आज दलितों के मुद्दों पर मुखर है और कांग्रेस ने एक दलित समुदाय को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है और भागेदारी भी सुनिश्चित कर रही है तो क्यों न साथ खड़े हों. दलित के मुद्दे पर लोग जानना चाहते हैं कि देश में बीजेपी के खिलाफ कौन बोल रहा है, तो राहुल गांधी ही दिखेंगे. हम चाहते हैं कि सभी दल एकजुट होकर कांग्रेस के साथ बीजेपी का मुकाबला करें. बसपा अकेले चुनाव लड़कर क्या बीजेपी को हरा सकती हैं? 

सोशल इंजीनियरिंग के जरिए नए-नए सियासी प्रयोग करने में माहिर बसपा प्रमुख मायावती लोकसभा चुनाव में खुद के दम पर लड़ेगी. इसी मद्देनजर उन्होंने अपने सिपहसालारों (कोआर्डिनेटरों) को कार्ययोजना भी बताई गई कि यदि तीन मोर्चों पर पार्टी फोकस करती है तो किसी के सहारे की जरूरत नहीं है. 2024 में बसपा अपने काडर दलिट वोट के साथ मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग पर ज्यादा जोर दे रही हैं. तीन मोर्चों को लेकर बनाई गई नई कार्ययोजना को पार्टी निकाय चुनाव में भी आजमा सकती है. बसपा को इस फॉर्मूले से जीत मिलती है तो फिर 2024 के चुनाव में पूरे दमखम के साथ किस्मत आजमाएंगी? 

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