पश्चिम बंगाल में बीजेपी के सियासी रूप से उतार-चढ़ाव की कहानी काफी दिलचस्प है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 42 में से 18 सीटें हासिल कर सभी को चौंका दिया था. इसे समकालीन भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक गिना जाता है. लेकिन लोकसभा में शानदार प्रदर्शन करने वाली भाजपा 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव में जबरदस्त माहौल बनाने के बावजूद भी टीएमसी को हरा नहीं पाई. 2021 के बाद से राज्य की सियासी कहानी फिर बदल गई और भाजपा को राज्य में कई झटके लगे. एक तरफ लोकसभा चुनाव 2024 में जहां बीजेपी का प्रदर्शन काफी खराब रहा तो वहीं हालिया विधानसभा उपचुनाव में भी ममता बनर्जी की पार्टी ने सभी 4 सीटों पर कब्जा जमाया. अब यहां पर भाजपा के उतार-चढ़ाव को समझने के लिए राज्य की सोशल इंजीनियरिंग को भी समझना होगा.
2019 में बीजेपी ने उत्तर बंगाल में दिखाया था दम
2019 के आम चुनावों में भाजपा ने उत्तर बंगाल की आठ सीटों में से सात सीटें जीतीं थी.इसमें कूचबिहार, अलीपुरद्वार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग, रायगंज, बालुरघाट और मालदा शामिल थीं. इन इलाकों में पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े दलित समूह राजबंशियों का सियासी रूप से दबदबा है,जिसे साधने में बीजेपी कामयाब रही थी.उस वक्त बीजेपी ये मैसेज देने में भी कामयाब रही थी कि उत्तरी बंगाल के राजबंशियों और अन्य स्वदेशी समूहों को बंगाल के अभिजात वर्ग के हाथों लगातार उपेक्षा का सामना करना पड़ा है, जो बड़े पैमाने पर दक्षिण बंगाल से संबंधित हैं.
टीएमसी ने इस कमी को किया दूर
लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी ने कूचबिहार निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी के सबसे प्रमुख राजबंशी चेहरे निसिथ प्रमाणिक को हराकर भाजपा के मैदान में मजबूत बढ़त बनाई. हालांकि, भाजपा ने रायगंज को छोड़कर सभी निर्वाचन क्षेत्रों में अपना दम जरूर दिखाया.
उपचुनाव में टीएमसी ने लगा दी सेंध
लोकसभा चुनाव के ठीक एक महीने बाद हाल ही में रायगंज विधानसभा उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार टीएमसी से बड़े अंतर से हार गए. रायगंज विधानसभा सीट बीजेपी का गढ़ मानी जाती है, लेकिन टीएमसी ने यहां जीत हासिल की. इसी तरह लोकसभा चुनाव 2024 में मतुआ-नामसुद्र का भी समर्थन बीजेपी को मिलता दिखा. नामसुद्र, पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा दलित समूह, जिसका रानाघाट और बोनगांव के दो लोकसभा क्षेत्रों पर खासा असर है. इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में नामसुद्र शरणार्थियों का वर्चस्व है, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के अपेक्षित लाभार्थी हैं. भाजपा इन दोनों सीटों को जीतने में कामयाब रही.
मतुआ वोटों में फिर टीएमसी ने लगाई सेंध
टीएमसी ने हाल ही में मतुआ के गढ़ बगदाह और राणाघाट दक्षिण विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में जीत हासिल की. सबसे खास ये रहा कि टीएमसी की मधुपर्णा ठाकुर (राज्यसभा सांसद ममता बाला ठाकुर की बेटी) ने अपने चाचा और दिग्गज भाजपा मतुआ नेता शांतनु ठाकुर के गढ़ में भाजपा को बड़े अंतर से हरा दिया. इससे जाहिर तौर पर पता चलता है कि मतुआ बेल्ट के अपने गढ़ में भी बीजेपी के लिए सब कुछ ठीक नहीं है.
इसी तरह जंगलमहल के आदिवासी क्षेत्र जिसमें झारग्राम, बांकुरा, बिष्णुपुर और पुरुलिया सीटें आती हैं. यहां भाजपा को हाल के आम चुनावों में सबसे अधिक हार का सामना करना पड़ा. 2019 में बीजेपी ने सभी चार सीटें जीतीं थी. लेकिन इस बार उसने केवल बिष्णुपुर और पुरुलिया को ही बरकरार रखा और वह भी मामूली अंतर से. इस हार का प्रमुख कारण कुर्मी वोटों का छिटकना माना जा रहा है.कुर्मियों ने 2019 में बीजेपी को जोरदार वोट किया था.
हिंदुओं की एकजुटता में भी विफल रही बीजेपी
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग रणनीति का सबसे अहम पहलू हिंदू एकजुटता माना जाता है. राज्य में मुस्लिमों की आबादी करीब 30 प्रतिशत बताई जाती है. भाजपा को उम्मीद थी कि उसे हिंदू एकजुटता के साथ-साथ मुस्लिम वोटों के टीएमसी और वाम-कांग्रेस गठबंधन के बीच बंटने से फायदा होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ.लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उत्तर बंगाल में ही भाजपा को मुस्लिम वोटों के विभाजन से कुछ हद तक फायदा हुआ.
लेकिन मध्य और दक्षिण बंगाल में वोटों का ऐसा कोई विभाजन नहीं हुआ.यहां मुसलमानों ने टीएमसी का मजबूती से समर्थन किया. मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र बहरामपुर में कांग्रेस के दिग्गज नेता अधीर रंजन चौधरी की राजनीतिक शुरुआत करने वाले और गैर-बंगाली यूसुफ पठान के हाथों हार टीएमसी के पक्ष में मुस्लिम एकजुटता का प्रमाण है.अन्य राज्यों की तरह हिंदू वोटरों ने भी बीजेपी को खुलकर वोट नहीं दिया.जिसका असर सीटों पर देखने को मिलता है.
भाजपा ने खोया इन वर्गों का समर्थन
2019 में भाजपा की राजनीतिक बढ़त को बड़े पैमाने पर राजबंशी, मतुआ-नामसुद्र और जंगलमहल के आदिवासी समूहों जैसे दलित समूहों के समर्थन से मदद मिली. 2024 के चुनाव नतीजे स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि इन सभी समुदायों के बीच भाजपा का समर्थन कम हो गया है. इसके अलावा बड़े पैमाने पर हिंदू एकजुटता लाने का उसका प्रयास भी विफल रहा है. लेकिन समझने वाली बात ये है कि 2024 के नतीजे भाजपा के लिए पूरी तरह से निराशाजनक तस्वीर नहीं हैं. लोकसभा परिणामों को विधानसभा क्षेत्रों में तब्दील करने से पता चलता है कि भाजपा कई विधानसभा क्षेत्रों और वरिष्ठ टीएमसी नेताओं द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली महत्वपूर्ण नगर पालिकाओं में टीएमसी से आगे थी.
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टीएमसी के लिए ये है खंतरे के संकेत
टीएमसी ने चुनावों में जीत हासिल की है, लेकिन शहरी इलाकों में इसका कम होता समर्थन सत्तारूढ़ पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है, जो पहले से ही अपने स्थानीय नेताओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई है.
(ये रिसर्च अयान गुहा और अंबर कुमार घोष ने की है. अयान ब्रिटेन के ससेक्स विश्वविद्यालय में इंटरनेशनल फेलो हैं. जबकि अंबर कुमार घोष ब्रुसेल्स में यंग रिसर्चर्स नेटवर्क, यूरोपियन डेमोक्रेसी हब में फेलो हैं.)