कृषि कानूनों को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ पंजाब के किसानों की आवाज पर अब देश के किसान अपने सुर मिलाने लगे हैं. कृषि अध्यादेश आने के बाद से ही उबल रहे पंजाब में कृषि कानून बनने के बाद किसान संगठन सड़क पर आ गए. शुरुआत में तो उन्होंने पंजाब तक ही आंदोलन सीमित रखा लेकिन अब बीते 12 दिन से किसानों ने दिल्ली के बॉर्डर पर अपना डेरा जमा दिया है.
मोदी सरकार पंजाब के किसानों की नाराजगी का अंदाजा भी नहीं लगा सकी, जिसके पीछे बड़ी वजह बीजेपी का पंजाब में अपने दम पर मजबूत न होना भी है. ऐसे में न तो पार्टी पंजाब के किसानों को साधने में कामयाब हुई और न ही किसान आंदोलन की ताकत को समझ सकी.
दरअसल, बीजेपी पंजाब की सियासत में शिरोमणि अकाली दल के सहारे करीब ढाई दशक से अपनी राजनीति करती रही है. पंजाब की कुल 117 विधानसभा सीटों में से बीजेपी महज 23 सीटों पर ही चुनाव लड़ती रही है, जिससे न तो पार्टी के पास पूरे राज्य में जनाधार है और न ही पार्टी का संगठन खड़ा है. पंजाब में अकाली की परफॉर्मेंस से ही बीजेपी की किस्मत का फैसला होता रहा है. यही वजह रही लोकसभा चुनाव में प्रचंड मोदी लहर के बाद भी बीजेपी पंजाब में बहुत बड़ा करिश्मा नहीं दिखा सकी. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी महज 3 सीटें ही जीत सकी थी, उसे 5.4 फीसदी वोट मिले थे. इससे पंजाब में बीजेपी की क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
अकाली के साथ रहने के चलते बीजेपी का सिर्फ शहरी मतदाताओं के बीच राजनीतिक आधार है. ऐसे में ग्रामीण इलाकों में पार्टी की पकड़ कमजोर है या फिर न के बराबर है. जबकि किसानों का आंदोलन पूरी तरह से ग्रामीण इलाके का है. इसके चलते किसानों की नब्ज को बीजेपी के स्थानीय नेता नहीं समझ सके, जिससे बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी अनभिज्ञ रह गया. कृषि कानून के खिलाफ पंजाब में किसान इतने आंदोलित हैं कि उन्होंने चेतावनी दी है कि जो भी सांसद इन बिलों के साथ होगा, उसे राज्य में घुसने नहीं दिया जाएगा.
किसानों के इर्द-गिर्द पंजाब की सियासत
पंजाब की राजनीति किसानों के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. पंजाब में कृषि और किसान ऐसे अहम मुद्दे हैं कि कोई भी राजनीतिक दल इन्हें नजरअंदाज कर अपना वजूद कायम रखने की कल्पना भी नहीं कर सकता है. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में किसानों के कर्ज माफी के वादे ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी में कराई थी जबकि उससे पहले किसानों को मुफ्त बिजली वादे के बदौलत ही अकाली दल सत्ता पर काबिज होती रही है. किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के बीच कांग्रेस का कर्ज माफी का वादा अकाली दल की दस साल पुरानी सरकार को सत्ता से बेदखल करने में कारगर रहा था.
किसान प्रदेश की राजनीतिक दशा और दिशा तय करते हैं. यही वजह रही कि अकाली दल ने मोदी सरकार की मंत्री की कुर्सी ही नहीं छोड़ी बल्कि एनडीए से भी नाता तोड़ लिया है. अकाली के अलग होने के बाद बीजेपी पंजाब को भले ही राज्य में विस्तार करने का मौका दिखा हो, पर किसानों की नारजगी एक बड़ी मुसीबत बन गई है.
अकाली दल का किसानों के मुद्दे पर साथ छोड़ना बीजेपी के लिए डबल झटका था, क्योंकि एक तो बीजेपी का सबसे पुराना सहयोगी साथ छोड़ गया और दूसरा वो उस वक्त साथ छोड़ गया जब पार्टी को उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. सरकार किसानों को समझाने के लिए अकालियों पर निर्भर थी, लेकिन अकाली न सिर्फ साथ छोड़ गए बल्कि किसानों के साथ जाकर खड़े हो गए. इससे बीजेपी के लिए दोहरी चुनौती खड़ी हो गई है.
किसान पंजाब की सरहद से निकलकर दिल्ली के बॉर्डर पर डेरा जमाए हैं. किसानों ने कह दिया है कि इन कानूनों के वापस होने तक किसी तरह का कोई समझौता नहीं होगा. पंजाब बीजेपी के नेताओं के पास बस गिना-चुना यही जवाब है कि अकाली दल और कांग्रेस किसानों को गुमराह कर रहे हैं और अपनी राजनीति चमका रहे हैं. इसके बावजूद किसानों पर बीजेपी नेताओं की इन दलीलों का कोई असर नहीं हो रहा है. ऐसे में अकाली दल अगर बीजेपी के साथ होता तो सरकार के लिए हालात सकारात्मक हो सकते थे. हालांकि, अकाली दल भी अब किसानों के साथ खड़ी है, जो मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है.