पंजाब में अगले साल शुरुआत में होने वाले विधानसभा की सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं. बीजेपी से नाता तोड़ने के एक साल बाद शिरोमणि अकाली दल को पंजाब में बसपा के रूप में सहयोगी दल मिल गया है. ढाई दशक के बाद अकाली दल और बसपा एक बार फिर से साथ आए हैं. सीट शेयरिंग फॉर्मूले के तहत राज्य की 117 सीटों में से अकाली 97 और बसपा 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. ऐसे में सवाल उठता है कि 2022 के चुनाव अकाली दल के लिए बीजेपी की कमी बसपा कितना भर पाएगी?
किसान आंदोलन के बाद पंजाब के सियासी समीकरण ऐसे बने हैं, जिसके चलते अकाली दल बीजेपी से नाता तोड़कर अलग हो गई है. ऐसे में अकाली दल को सत्ता में वापसी के लिए एक मजबूत सहयोगी दल की दरकार थी. वहीं, पंजाब में देश के सबसे ज्यादा दलित मतदाता होने के बाद भी बसपा की छवि वोटकटवा की बनकर रह गई है. ऐसे में बसपा गठबंधन के नए समीकरणों की संभावनाएं तलाशने में जुटी थी. ऐसे में ढाई दशक पुराने फॉर्मूले को दोहराने के लिए बसपा और अकाली दल ने फिर साथ आए हैं.
25 साल पहले किया चमत्कार
अकाली दल और बसपा ने इससे पहले 1996 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन किया था. बसपा की कमान कांशीराम के हाथ में थी और यूपी में मायावती मुख्यमंत्री बन चुकी थी. दलितों के बीच बसपा ने काफी हद तक जगह बना लिया था. 1996 के चुनाव में पंजाब में अकाली-बसपा गठबंधन को जोरदार सफलता मिली थी. राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से 11 सीटें इस गठबंधन ने झटकी थीं. अकाली दल को 8 और बसपा को 3 सीटें मिली थी, लेकिन उसके बाद अकाली दल ने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया था और तब से लेकर यह गठबंधन 2020 तक चलता रहा.
पंजाब की सियासत में अकाली और बीजेपी ने मिलकर लंबे समय तक राज किया, लेकिन पिछले साल किसान आंदोलन ने उनके बीच खाईं गहरी कर दी है. इसके पीछे वजह यह है कि पंजाब की सियासत किसानों के हाथ में रही है और अकाली का आधार किसान वोटों पर टिका हुआ है. कृषि कानूनों के चलते बीजेपी के सहयोगी दल होने के नाते अकाली दल की सियासत को गहरा धक्का लगा. ऐसे में अकाली भले ही बीजेपी से अलग हो गई हो, लेकिन किसानों की नाराजगी को दूर नहीं कर सकी. ऐसे में अब माना जा रहा है कि यह कदम पंजाब में दलित समुदाय के वोटों को अपने पाले में लाने के लिए उठाया गया है.
पंजाब में दलित मतदाता अहम
देश में सबसे ज्यादा 32 फीसदी दलित आबादी पंजाब में रहती है, जो राजनीतिक दशा और दिशा बदलने की पूरी ताकत रखती है. पंजाब का यह वर्ग पूरी तरह कभी किसी पार्टी के साथ नहीं रहा है. दलित वोट आमतौर पर कांग्रेस और अकाली के बीच बंटता रहा है. हालांकि, बीएसपी ने इसमें सेंध लगाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी एकतरफा समर्थन नहीं मिला. वहीं आम आदमी पार्टी के पंजाब में दलित वोटों को साधने के लिए तमाम कोशिश कर चुकी हैं. ऐसे में बसपा और आकाली दल ने दलित वोटों को एकजुट साधने के लिए साथ आए हैं.
बसपा की पंजाब में दस्तक
तीन दशक पहले 1992 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 9 विधानसभा सीटें जीतकर पंजाब की राजनीति में अपनी दमदार शुरूआत की थी. यह वह दौर था जब बसपा ने पंजाब में दलित राजनीति में पांव जमाने शुरू किए थे, लेकिन बसपा अपनी यह परफार्मेंस बरकरार नहीं रख पाई. पांच साल बाद ही बसपा का ग्राफ गिर गया और 9 से एक सीट पर सिमट कर रह गई.
1997 में बसपा अंतिम बार पंजाब विधान सभा की किसी सीट पर जीत दर्ज कर सकी थी. इसके बाद से बसपा का ग्राफ धीरे-धीरे गिरता ही रहा और बसपा कि छवि पंजाब में वोट कटवा पार्टी के तौर पर बन गया. हालांकि, 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बसपा ने एक बार फिर पंजाब में अपनी अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया. बसपा ने 3.49 फीसदी वोट लेकर सबको चौंका दिया.
दलित दो हिस्सों में बंटा हुआ है
पंजाब में दलित वोट अलग-अलग वर्गों में बंटा है. यहां रविदासी और वाल्मीकि दो बड़े वर्ग दलित समुदाय के हैं. देहात में रहने वाले दलित वोटरों में एक बड़ा हिस्सा डेरों से जुड़ा हुआ है. ऐसे में चुनाव के वक्त ये डेरे भी अहम भूमिका निभाते हैं. महत्वपूर्ण है कि दोआब की बेल्ट में जो दलित हैं, वे पंजाब के दूसरे हिस्सों से अलग हैं. इसकी वजह यह है कि इनमें से अधिकांश परिवारों का कम से कम एक सदस्य एनआरआई है. इस नाते आर्थिक रूप से ये काफी संपन्न हैं. इनका असर फगवाड़ा, जालंधर और लुधियाना के कुछ हिस्सों में है. दोआब में 23 विधानसभा सीटें आती हैं, जहां दलित सबसे अहम भूमिका में है.
अगले साल शुरू में ही 2022 में पंजाब में विधानसभा चुनाव होने है और ऐसे में अब सभी पार्टियां दलित वोटरों पर और ज्यादा फोकस करती रही हैं. कांग्रेस और अकाली में दलित वोटों के लिए शह-मात का खेल शुरू हो गया है. पंजाब में इस बार दलित मुख्यमंत्री या दलित उप मुख्यमंत्री का मुद्दा बेहद गर्म है. बीजेपी की ओर से यह एलान किए जाने के बाद कि वह अगर पंजाब की सत्ता में आई तो दलित समुदाय के किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाएगी, बाकी दलों ने भी इस समुदाय को रिझाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं.
अकाली दल के प्रमुख सुखबीर बादल को उम्मीद है कि कांग्रेस में चल रहे घमासान के कारण उसका सत्ता में वापसी करना मुश्किल है, लेकिन वो यह भी जानते है ंकि अकेले दल पर सत्ता नहीं हासिल कर सकते. ऐसे में अकाली दल ने दलित वोटों के अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए बसपा के साथ हाथ मिला लिया है. वहीं, कांग्रेस अब दलित डिप्टीसीएम बनाने का दांव चल सकती है, क्योंकि हाल ही में केंद्रीय नेतृत्व के सामने यह प्लान रखा गया है. ऐसे में देखना है कि 2022 के चुनाव में दलित किसके पक्ष में एकजुट होता है.