कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत एक बार फिर राजस्थान की सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होने जा रहे हैं. वह कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट को पीछे छोड़ते हुए सीएम की बाजी में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की पहली पंसद बन गए है. जबकि सचिन पायलट को डिप्टी सीएम बनाया गया है.
विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद से कांग्रेस में सीएम की घोषणा को लेकर कश्मकश जारी थी. पायलट और गहलोत से राहुल गांधी ने अलग-अलग दो दिनों तक मुलाकात की. इसके बाद राहुल ने 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए गहलोत को सीएम बनाए जाने पर मुहर लगा दी और सचिन पायलट को डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी सौंप दी.
हालांकि कांग्रेस के संगठन महासचिव बनने के बाद इस तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अब पू्र्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्य की राजनीति नहीं करेंगे. इसलिए यह माना जा रहा था कि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के लिए अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने का रास्ता साफ है. अशोक गहलोत भी कई बार इस बात को दोहरा चुके थे कि वो पार्टी में ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं कि अब वो मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं बल्कि बनाएंगे. लेकिन नतीजों के बाद वही सीएम की पहली पसंद बने.
राजस्थान की हर सभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता के सामने ये दिखाने की कोशिश की है कि राजस्थान में पार्टी एकजुट है और दो अलग-अलग पीढ़ी के नेताओं में कोई मतभेद नहीं है. सचिन पायलट और अशोक गहलोत भी एकजुटता का संदेश देने के लिए संकल्प रैलियों में एक बस में साथ सवार होकर सभा में शामिल होते रहे.
वहीं, करौली की एक जनसभा में जाते समय जब रास्ते में काफी जाम लग गया तब पायलट ने एक कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल मांगी और गहलोत को पीछे बैठाकर खुद मोटरसाइकिल चलाते हुए रैली स्थल पहुंच गए. राहुल गांधी ने भी दोनों नेताओं की इस तस्वीर का जिक्र करते हुए मंच से कहा था कि वे अब आश्वस्त हैं कि पार्टी में कोई मतभेद नहीं है.
कांग्रेस की रैलियों में हाथ मिलाने, मोटरसाइकिल पर साथ सवारी करने के बाद इस बात की घोषणा स्वयं अशोक गहलोत ने पार्टी मुख्यालय से की कि वे और सचिन पायलट विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. जिसके बाद सचिन पायलट ने भी कहा कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के निर्देश और अशोक गहलोत के निवेदन पर वे विधानसभा का चुनाव लड़े और जीत हासिल की.
राजस्थान में यह माना जाता है कि सचिन पायलट पर राहुल गांधी का हाथ है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वर्तमान में राहुल के सबसे मजबूत 'हाथ' अशोक गहलोत हैं. वर्तमान में राजस्थान की राजनीति में मास लीडर के तौर पर यदि किसी का नाम सबसे ऊपर अशोक गहलोत रहा. राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक और कमजोर जाति से आने वाले गहलोत ने अपने कार्यकाल में राजस्थान में ऐसा जादू चलाया जिसकी काट अभी किसी के पास नहीं है. गहलोत का राजनीतिक कौशल ही था कि 1998 में मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार परसराम मदेरणा को पीछे छोड़ते हुए वे सत्ता के शिखर पर पहुंचे.
भले ही राजस्थान में मृतप्राय पड़ी पार्टी में जान फूंकने में पायलट सफल रहे हैं. उन्होंने पार्टी को सत्ता में वापसी कराकर खुद को साबित किया. लेकिन राज्य की पिछड़ी जातियों में गहलोत सर्वमान्य नेता हैं. बड़ी और प्रभावी जातियों के समीकरण को तोड़ते हुए अपनी तैयार की हुई राजनीतिक जमीन वे किसी हाल में छोड़ने के मूड में नहीं थे.
कांग्रेस का संगठन महासचिव होने के नाते गहलोत भली-भांति जानते थे कि अब वो पुरानी बात नहीं रही जिसमें वे बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बन गए थे. इसके पीछे भी इतिहास है कि जब 2008 के चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी का मुख्यमंत्री बनना तय था तब वे एक वोट से विधानसभा चुनाव हार गए थे, ऐसे में गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाया गया था क्योंकि वे विधायक चुने गए थे.
लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद राहुल गांधी ने राज्यों में पार्टी का मजबूत संगठन खड़ा करने के लिए बड़े स्तर पर परिवर्तन किया. अजमेर से लोकसभा चुनाव हारने के बाद जब सचिन पायलट को राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तब पार्टी के भीतर उनका मुकाबला अशोक गहलोत और सीपी जोशी से था. दोनों ही राहुल गांधी के भरोसेमंद सिपहसालार और रणनीतिज्ञ माने जाते थे. साथ ही पायलट की छवि पैराशूट से उतरे नेता के तौर पर देखी जा रही थी, जिसकी कोई जमीनी पकड़ नहीं थी.
इन सब चीजों के बावजूद सचिन पायलट ने राज्य में अर्श से फर्श पर पड़ी पार्टी को जीत के मुहाने लाकर खड़ा ही नहीं किया, बल्कि सरकार की सत्ता में वापसी कराई. पायलट की इस सफलता के पीछे कई वजहें रहीं जिसमें पहली वजह यह थी कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर काम करने का पांच साल का लंबा वक्त मिला. जिससे उन्हें अपना नेटवर्क खड़ा करने और कांग्रेस के चेहरे के तौर पर खुद को स्थापित करने में आसानी हुई. दूसरा पायलट ने अध्यक्ष के तौर पर प्रदेश की जमकर यात्राएं कीं और पार्टी को खड़ा करने की कोशिश की. जब राज्य में विधानसभा चुनाव की चर्चा भी नहीं तब तक सचिन पायलट पूरे प्रदेश का लगभग दो बार दौरा कर चुके थे. तीसरी, उनके सौम्य, संयमित व्यक्तित्व की वजह से जनता खासकर युवाओं में उनकी छवि एक प्रगतिशील और आधुनिक नेता के तौर पर हुई.
पायलट के मुकाबले गहलोत का पलड़ा क्यों है भारी?
इन सबके बावजूद राजस्थान की जनता सचिन पायलट को जिस तराजू में तौलेगी उसमें पहले से ही अशोक गहलोत बैठे हैं, लिहाजा तराजू गहलोत की तरफ ही झुकेगा. इसके पीछे की वजह साफ है पायलट पहली बार विधानसभा चुनाव लड़े. अजमेर से लोकसभा सांसद रह चुके हैं और उनके पिता दौसा से सांसद रह चुके हैं. पायलट की एक कमजोरी यह भी है कि उन्हें बाहरी समझा जाता है. क्योंकि वे मूलत: राजस्थान के नहीं बल्कि यूपी के नोएडा के रहने वाले हैं और 80 के दशक में उनके पिता राजेश पायलट ने दौसा में अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की.
जबकि अशोक गहलोत के साथ ऐसा नहीं था, वे पिछले चार दशक से राज्य में सक्रिय हैं. सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाने के पीछ आलाकमान की नजर लोकसभा चुनाव पर है. ऐसे में पार्टी अनुभवी नेता के जरिए सूबे को साधकर रखने और 2019 के चुनाव में नतीजों को बेहतर करने की रणनीति है.
पायलट गुर्जर समुदाय से आते हैं, जिसकी गिनती मार्शल कौम में होती है. कांग्रेस नहीं चाहती कि राज्य में जाट और मीणा वोट उससे नाराज हों. यहां बताना जरूरी है कि गुर्जर और मीणा एक दूसरे के परस्पर विरोधी माने जाते हैं. इसी का नतीजा है कि गहलोत बाजी मार ले गए.