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वसुंधरा का मेवाड़ से चुनावी अभियान शुरू, हर बार यहीं से की है सत्ता में वापसी, इस बार क्या होगा?

राजस्थान के आदिवासी बहुल मेवाड़ में लोकसभा की पांच सीटें और विधानसभा की 28 सीटें हैं. 28 विधानसभा सीटों में से 19 सीटें अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. प्रशासनिक तौर पर इस क्षेत्र को उदयपुर संभाग के नाम से जाना जाता है. दक्षिण राजस्थान में स्थित अजेय भूमि मेवाड़ राजस्थान की राजनीति में अलग ही महत्व रखता है. शनिवार को वसुंधरा राजे ने अपने चुनावी अभियान का बिगुल यहीं से फूंका.

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सीएम वसुंधरा राजे और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह
सीएम वसुंधरा राजे और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह

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'पूरी छोड़ ने आधी खानी, पण मेवाड़ छोड़ने कठेई नि जानी' यानी भले ही पूरा छोड़कर आधा ही खाओ, लेकिन मेवाड़ छोड़कर कहीं न जाओ....यह कहावत है मेवाड़ की. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मेवाड़ से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की है. इसके पीछे का कारण है कि जब-जब मेवाड़ से उन्होंने चुनावी यात्रा की शुरूआत की तब-तब राजस्थान की सत्ता में वापसी की.

यह यात्रा करीब 40 दिन चलेगी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इस यात्रा की शुरुआत के दौरान मौजूद रहे तो पीएम मोदी इसके समापन के मौके पर मौजूद रहेंगे.

दक्षिण राजस्थान में स्थित अजेय भूमि मेवाड़ का राजस्थान की राजनीति में अलग ही महत्व है. कहा जाता है कि राजस्थान में सत्ता का रास्ता मेवाड़ से ही होकर गुजरता है. जो मेवाड़ जीतता है, वही राजस्थान पर राज करता है. यह आधुनिक लोकतांत्रिक अवधारणा ही नहीं, मध्यकालीन राजपूताना (आज की तारीख में राजस्थान) का शक्ति का केंद्र भी मेवाड़ ही था.

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इतिहास के तथ्य तलाशें और मेवाड़ के शूरवीर शासक महाराणा प्रताप की बात करें, तो मुगल बादशाह अकबर भी सारी कोशिशें करने के बावजूद अंत तक मेवाड़ को जीत नहीं पाए. महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और अकबर महाराणा के प्रताप को परास्त नहीं कर पाए. लिहाजा अकबर ने पूरा ध्यान दिल्ली पर केंद्रित कर लिया. सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राजस्थान के ऐतिहासिक दुर्ग-चितौड़गढ़, कुंभलगढ़ मेवाड़ में ही स्थित हैं.

मेवाड़ का इतिहास

राजस्थान का मेवाड़ साम्राज्य पराक्रमी गहलोतों की भूमि रहा है, जिनका अपना इतिहास है. अपनी मातृभूमि, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए गहलोतों के पराक्रम ने मेवाड़ पर अमिट छाप छोड़ी है. मेवाड़ में लंबे समय तक राजपूतों का शासन रहा. बाद में मुस्लिम आक्रांताओं नें यहां की धरोहरों को काफी क्षति पहुंचाई.

खिलजी वंश के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने साल 1303 में गहलोत शासक रावल रतन सिंह को पराजित कर इसे दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बना लिया. वहीं, गहलोत वंश की एक शाखा सिसोदिया वंश के हम्मीरदेव ने मुहम्मद तुगलक के समय में चित्तौड़ को जीतकर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया.

साल 1431 में राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर विराजमान हुए. राणा कुम्भा और राणा सांगा के समय मेवाड़ की ताकत अपने उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही.

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राणा कुम्भा ने राजसमंद में सामरिक दृष्टिकोण से मजबूत अभेद्य दुर्ग कुंभलगढ़ का निर्माण कराया. लेकिन जिस राणा कुम्भा को कोई पराजित नहीं कर पाया, उनकी उनके ही पुत्र उदयसिंह ने साल 1473 में हत्या कर दी. राजपूतों के विरोध के कारण उदय सिंह अधिक दिनों तक शासन नहीं कर पाए.

उदय सिंह के बाद उनके छोटे भाई राजमल ने 36 वर्ष तक सफल शासन किया. साल 1509 में राजमल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा संग्राम सिंह अथवा राणा सांगा मेवाड़ की गद्दी पर बैठे. राणा सांगा ने अपने शासनकाल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध युद्ध किए, लेकिन साल 1527 में खानवा के युद्ध में मुगल बादशाह बाबर ने उनको पराजित कर दिया.

हल्दी घाटी का युद्ध

मुगल बादशाह अकबर ने साल 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया. पर राणा उदय सिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर को अपनी राजधानी बनाकर वहां चले गए. उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की. अकबर और महाराणा प्रताप का युद्ध हल्दी घाटी के युद्ध के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है.

अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया और मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाए, लेकिन महाराणा ने अधीनता स्वीकार नहीं की. अंतत: साल 1642 के बाद अकबर ने अपना ध्यान दूसरे राज्यों में केंद्रित कर लिया और महाराणा प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर से अधिकार कर लिया. साल 1654 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई.

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महाराणा प्रताप के बाद उनके पुत्र राणा अमरसिंह ने भी मुगलों का प्रतिरोध किया, पर अंत में उन्होनें मुगल शासक जहांगीर से संधि कर ली और अपने राजकुमार राणा कर्ण सिंह को मुगल दरबार में भेज दिया, लेकिन स्वयं महाराणा ने अन्य राजाओं की तरह दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया.  राणा कर्णसिंह के बाद से उदयपुर तब तक मेवाड़ की स्थायी राजधानी रहा, जब तक कि राणा भूपाल सिंह द्वारा 18 अप्रैल 1948 में राजपूताना का भारत में विलय नहीं कर दिया गया.

मेवाड़ का राजनीतिक इतिहास

आदिवासी बहुल मेवाड़ में पांच लोकसभा सीटें और आठ जिले हैं. विधानसभा के लिहाज से मेवाड़ में 28 सीटें हैं, जिनमें 19 सीटें अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. प्रशासनिक तौर पर इस क्षेत्र को उदयपुर संभाग के नाम से जाना जाता है, जिसमें-उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, भीलवाड़ा, सिरोही जिले का कुछ हिस्सा शामिल है.

आजादी के बाद देश में राजतंत्र खत्म होकर लोकतंत्र स्थापित हुआ और राजपूताना राजस्थान में तब्दील हो गया, लेकिन आधुनिक राजस्थान के सियासतदां ने मेवाड़ को ही अपनी कर्मभूमि माना और इसके महत्व को कम नहीं होने दिया, क्योंकि वे जानते थे कि मेवाड़ के बिना जयपुर पर राज नहीं किया जा सकता.

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राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में मेवाड़ का दबदबा तो रहा ही है, यहां के नेताओं का भी राजस्थान की राजनीति में हमेशा से वर्चस्व रहा है. कांग्रेस के दिग्गज नेता सीपी जोशी और गिरिजा व्यास मेवाड़ से ही आते हैं. मोहनलाल सुखाड़िया से लेकर हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर ले लेकर हीरालाल देवपुरा और गुलाबचंद कटारिया का राजस्थान की राजनीति में अच्छा खासा असर रहा है.

इतिहास इस बात का गवाह है कि हरिदेव जोशी, मोहन लाल सुखाड़िया और अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने में मेवाड़ ने कितना योगदान दिया. साल 1952 से हो रहे चुनावों के परिणाम देखें, तो पलड़ा कांग्रेस का ही भारी रहा. राज्य में सर्वाधिक शासन करने वाले मुख्यमंत्री रहे मोहनलाल सुखाड़िया की कर्मभूमि मेवाड़ रही.

वहीं हरिदेव जोशी ने मुख्यमंत्री बनकर वागड़ को सियासी पहचान दी. बीते कुछ वर्षों में ऐसा सियासी उबाल देखने को मिला कि यहां कमल ने पंजे को पीछे छोड़ दिया. आदिवासी अंचल में वनवासियों के बीच खुद को स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कदम बढ़ाए. बाद में जनसंघ और बीजेपी ने संगठन खड़ा किया.

आखिर क्या वजह है कि 200 सीटों वाली विधानसभा में 28 सीटों वाला मेवाड़ इतना महत्व रखता है? राजस्थान के राजनेता भलीभांति जानते हैं कि राणा प्रताप की धरती देती है, तो छप्पर फाड़ कर देती है, लेकिन जब वापस लेती है, तब सब कुछ ले लेती है.

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साल 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मेवाड़ से सूपड़ा साफ हो गया और 28 में 26 सीटें बीजेपी के खाते में आ गई. इसी तरह 2008 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मेवाड़ की 28 में से 22 सीटें मिलीं और 96 सीटों पर जीत के साथ अशोक गहलोत सीएम बने. साल 2009 के लोकसभा चुनाव में पांचों संसदीय सीट कांग्रेस के खाते में थीं, तो वहीं साल 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इससे विपरीत परिणाम देखने को मिले.

इससे साफ होता है कि मेवाड़ ने कभी किसी को मिलाजुला बहुमत नहीं दिया, जब दिया स्पष्ट दिया. इसीलिए मेवाड़ से निकला राजनीतिक संदेश पूरे राजस्थान में परिलक्षित होता है. एक बार फिर राजस्थान में सियासी रणभेरी बज चुकी है और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अभियान की शुरुआत मेवाड़ के चारभुजा नाथ मंदिर से आशीर्वाद लेकर की है. लेकिन स्थानीय जानकारों और विश्लेषकों की मानें तो इस बार वसुंधरा राजे की डगर आसान नहीं है.

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