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वसुंधरा और गहलोत की सियासी अदला-बदली में राजस्थान को क्या मिला?

राजस्थान के सियासी इतिहास पर नजर डालें तो पूर्व मुख्यमंत्री भैरो सिह शेखावत के बाद राज्य की सत्ता की चाभी हर पांच साल में कांग्रेस और बीजेपी के बीच बदलती रही.

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अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे (फाइल फोटो-पीटीआई)
अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे (फाइल फोटो-पीटीआई)

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अगर एंटी-इनकंबेंसी एक तथ्य है तो राजस्थान इसका जीता जागता उदाहरण है. साल 1993 से किसी भी पार्टी की सरकार लगातार दूसरी बार नहीं बनी. चुनावों से पहले के सर्वे भी इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि राजस्थान में इस बार भी सत्ता परिवर्तन हो सकता है. सैद्धांतिक रूप से ऐसा माना जाता है कि नेतृत्व की अदला-बदली अर्थव्यवस्था और विकास में रुकावट पैदा करती है. लेकिन राजस्थान के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह सिद्धांत फेल होता नजर आएगा.

राज्य में लगातार बीजेपी-कांग्रेस के बीच सत्ता परिवर्तन के बावजूद राजस्थान विकास के विभिन्न मापदंडों पर अच्छा प्रदर्शन कर रहा है. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की सरकार में साल 2013-18 के बीच राज्य की वार्षिक वृद्धि दर 5 फीसदी रही. वहीं देश की GDP में राजस्थान का योगदान पिछले 5 वर्षों में 5 फीसदी रहा जबकि राज्य की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 5.7 फीसदी है.

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जब 7 फीसदी तक पहुंची GDP की वृद्धि दर

हाल के वर्षों में राजस्थान की महत्वपूर्ण वृद्धि पूर्व की अशोक गहलोत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार में हुई, जब 2008-13 के बीच GDP की वृद्धि दर 7 फीसदी तक पहुंची और देश की GDP में राजस्थान का योगदान 4.4 फीसदी से 5 फीसदी तक पहुंच गया. यह वृद्धि उत्पादन के मामले में प्रदर्शन से प्रेरित थी, क्योंकि इस दौरान भारत के औद्योगिक उत्पादन में राजस्थान का हिस्सा 4.8 फीसदी से बढ़कर 5.6 फीसदी पहुंच गया. जबकि पिछले पांच साल में देश के औद्योगिक उत्पादन में राजस्थान का योगदान 5 फीसदी रहा. यह प्रदर्शन वसुंधरा सरकार के अधिक निवेश को आकर्षित करने के सफल प्रयासों के बावजूद रहा.

25 फीसदी ज्यादा हुआ निवेश

आर्थिक मामलों के आंकड़ों की निगरानी करने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक वसुंधरा सरकार में राजस्थान ने 90750 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित किया, जो कि पू्र्ववर्ती गहलोत सरकार की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा था. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने सरकार में आने से पहले 15 लाख नए रोजगार का वादा किया था. इसके लिए उन्होंने रोजगार को बढ़ावा देने के प्रयास भी किए. ऐसा करने के लिए उन्होंने श्रम सुधार की दिशा में कई कदम उठाए ताकि कंपनियों को कर्मचारियों की भर्ती करने में आसानी हो. लेकिन इन सुधारों का अपेक्षाकृत परिणाम नहीं दिखा. पिछले एक दशक में देश की फैक्ट्रियों में रोजगार बढ़े हैं, लेकिन राजस्थान की भागीदारी देश के औद्योगिक कर्मचारियों की कुल संख्या में 3.5 फीसदी ही है. जो भी रोजगार पैदा हुए वे संविदा कर्मियों के हुए. 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक राजस्थान के उद्योगों में संविदा कर्मियों की संख्या 39.6 फीसदी है.

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किसानों की आय भी बढ़ी

जाहिर है यह आंकड़े बताते हैं कि क्यों सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वे में रोजगार की कमी सबसे बड़ा मुद्दा है. राजस्थान की दूसरी बड़ी चिंता कृषि संकट है. बता दें कि राजस्थान के 60 फीसदी मजदूर खेती पर निर्भर हैं और हाल के दिनों में अपनी मांगों को लेकर यह सड़क पर भी उतरे थे, जबकि कुछ ने अपने प्राण तक त्याग दिए. एक रिसर्च के मुताबिक राजस्थान के किसानों का औसत भारतीय किसानों की तुलना में प्रदर्शन अच्छा रहा. इस अध्ययन के मुताबिक 2003-13 के बीच राजस्थान के किसानों की आय में 63 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि इस दौरान देश के किसानों की आय में औसत वृद्धि 34 फीसदी रही. हालांकि राजस्थान के किसानों को हाल के महीनों में तगड़ा झटका लगा है. लहसुन, चना और मूंग की बंपर पैदावार की वजह से कीमतें गिर गईं और इन्हें नुकसान झेलना पड़ा. कोटा संभाग में लहसुन का दाम इस बार बड़ा चुनावी मुद्दा है.  

गरीबी के आंकड़ों में कमी आई  

गिरती कीमतों के दबाव के कारण खरीद भी कमजोर रही. राज्य में गेंहू की कुल खरीद देश हुई कुल खरीद से 5 फीसदी कम हुई जबकि राजस्थान देश का 9 फीसदी गेंहू पैदा करता है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन के मुताबिक राजस्थान में गरीबी में रहने वालों की संख्या 32 फीसदी है. हालांकि गरीबी के आंकड़ों में 2005-06 की तुलना में 30 फीसदी की कमी आई है, लेकिन यह देश के औसत 28 फीसदी से ज्यादा है.

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हालांकि विकास के कुछ पैमानों पर राजस्थान का प्रदर्शन अच्छा रहा. शिशु मृत्यु दर में सुधार हुआ है और यह देश की शिशु मृत्यु दर 41:1000 के बराबर, जो कि 2005-06 में 65:1000 था. आज की तारीख में राजस्थान के 90 फीसदी घरों में बिजली का कनेक्शन है जबकि देश में यह आंकड़ा 88 फीसदी है.

आंकड़ों में यह सुधार विभिन्न दलों के शासनकाल में धीरे-धीरे होता रहा, लेकिन जिन वोटरों के और भी कई मुद्दे हैं उन्हें यह आंकड़े प्रभावित कर पाएं इसकी उम्मीद कम है. नौकरियों और कृषि संकट से परे, जातीय संघर्षों ने राजस्थान की हालिया राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई है और इन सबका वोटिंग पर असर पड़ना स्वाभाविक माना जा रहा है.

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