इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रहे 60 साल पुराने बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि मालिकाना हक विवाद का फैसला सुनाने का मार्ग प्रशस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को स्थगित करने का आग्रह करते हुए दायर याचिका खारिज कर दी. अब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच 30 सितंबर को इस मामले में अपना फैसला सुना देगी. अदालत ने फैसला सुनाने के लिए दोपहर बाद 3.30 बजे का समय तय किया है.
प्रधान न्यायाधीश एस एच कपाड़िया की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय पीठ ने अपने संक्षिप्त आदेश में कहा कि संबद्ध पक्षों की दलीलों पर विस्तार से विचार करने के बाद हमारी राय बनी है कि विशेष अनुमति याचिका खारिज की जाये और इस तरह यह याचिका खारिज की जाती है.
मालिकाना हक संबन्धी विवाद का बातचीत के जरिये हल निकालने के इलाहाबाद हाईकोर्ट का 24 सितम्बर को सुनाया जाने वाला फैसला टालने का आग्रह करते हुए सेवानिवृत्त नौकरशाह रमेश चन्द्र त्रिपाठी द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका के आधार पर गत 23 सितम्बर को शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाये जाने पर अंतरिम रोक लगाते हुए सभी पक्षों को नोटिस जारी किया था. लगभग दो घंटे तक सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी.
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने हालांकि अपने निर्णय के लिये स्पष्ट तौर पर कोई कारण नहीं बताया और न ही इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा फैसला सुनाये जाने के लिये कोई तिथि तय की.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उम्मीद की जा रही है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट जल्दी ही अयोध्या मालिकाना हक मामले पर अपना फैसला सुना देगा क्योंकि मामले की सुनवाई कर रही पीठ के तीन न्यायाधीशों में से एक, न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा एक अक्तूबर को ही सेवानिवृत्त हो रहे हैं. {mospagebreak}
इससे पहले अटार्नी जनरल जी ई वाहनवती ने कहा कि अनिश्चितता की स्थिति नहीं बनी रहनी चाहिये.
प्रधान न्यायाधीश एस एच कपाडिया, न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन की तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष पेश होते हुए वाहनवती ने कहा कि इस मामले में सर्वाधिक वांछित हल था बातचीत के जरिये निकालने वाला समाधान, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अभी जो अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है, उसे जारी नहीं रहने देना चाहिये.
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने त्रिपाठी की याचिका खारिज करने का फैसला सर्वसम्मति से लिया. पीठ के समक्ष अपनी दलील में अटार्नी जनरल ने कहा कि 1999 से सरकार इस मामले का बातचीत से हल निकाले जाने के पक्ष में है लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि मामले का किसी न किसी तरह हल निकाला जाये. हम कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी को निलंबित नहीं रख सकते. वाहनवती ने कहा कि मेरी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है. मेरा विचार है कि मामले का फैसला दिया जाना चाहिये. 1994 के जनादेश के अनुसार भी हमें यही करना चाहिये. उन्होंने अयोध्या में विवादित भूमि के अधिग्रहण पर संविधान पीठ के फैसले का भी जिक्र किया.
उन्होंने रोहतगी के इस आरोपों को खारिज कर दिया कि केन्द्र इस मामले में चुप्पी साधे रहा और केवल विवादित भूमि के एक रिसीवर के तौर पर बना रहा.{mospagebreak}
वाहनवती ने कहा कि सरकार कानून का शासन बहाल करने को कटिबद्ध है और 14 सितम्बर 1994 को शीर्ष न्यायालय को दिये अपने उस आश्वासन का पालन करने को प्रतिबद्ध है. अटार्नी जनरल ने रोहतगी की इस दलील का भी खंडन किया कि सरकार बातचीत और वार्ता प्रक्रिया के जरिये इस मामले का हल निकालने के प्रति सक्रिय नहीं रही. उन्होंने कहा कि सरकार कानून के शासन का सम्मान करने में विश्वास रखती है.
वाहनवती ने रोहतगी की उस दलील को भी नकार दिया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला देने वाली पीठ के सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीश का कार्यकाल सरकार बढा सकती है. उन्होंने कहा कि इस संबन्ध में केन्द्र को कोई अधिकार नहीं है. यह अधिकार हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का है और सुप्रीम कोर्ट का कालेजियम इस मामले में कुछ हद तक सिफारिश कर सकता है.
इससे पहले मामले पर फैसला टालने का आग्रह करने वाले पक्ष के वकील ने दलील दी कि अदालत और सरकार इस मामले को अदालत से बाहर बातचीत के जरिये हल करने के लिये नयी पहल कर सकती है. वैसे निर्मोही अखाड़े को छोड़कर मामले से जुड़े अन्य सभी पक्षों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ द्वारा साठ साल पुराने इस मामले पर सुनाये जाने वाले फैसले को टाले जाने का विरोध किया.
त्रिपाठी की ओर से शीर्ष अदालत में पेश हुए वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत में कहा कि यह भावनाओं से जुड़ा मामला है और अदालत और सरकार को इस मामले का बातचीत के जरिये हल करने के लिये सक्रिय पहल करनी चाहिये.{mospagebreak}
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों में से एक के सेवानिवृत्त होने पर मामले पर नये सिरे से सुनवाई की आशंका का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे उपाय हैं जिनके जरिये सरकार इस समस्या से निपट सकती है. सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीश की पुन: नियुक्ति की जा सकती है अथवा उनके उत्तराधिकारी उनके फैसले को सुना सकता है.
रोहतगी ने यह भी दलील दी कि 1993 में सरकार के भूमि अधिग्रहण के बाद मालिकाना हक का कोई मामला लंबित रह ही नहीं सकता.
उन्होंने कहा कि लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीश भी बातचीत के जरिये मामले का हल निकलाने की जरूरत पर सहमत थे और 24 सितम्बर तक की अवधि तय की थी लेकिन यह मामला भावनाओं से इस कदर जुड़ा हुआ है कि इसमें समय सीमा तय नहीं की जा सकती.
त्रिपाठी के आग्रह का विरोध करते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ने कहा कि यह याचिका निहित उद्देश्य से दी गयी है और इस पर सुनवाई नहीं की जानी चाहिये. उन्होंने कहा कि कोई तो ऐसा आधार होना चाहिये जिसके सहारे सभी पक्षों को स्वीकार्य हल निकाला जा सके लेकिन यह दुखद है कि यहां ऐसा कुछ भी नहीं है.
वरिष्ठ वकील रवि शंकर प्रसाद ने मामले के एक और पक्ष की तरफ से पेश होते हुए कहा, ‘वह (त्रिपाठी) एक गैर संजीदा पक्ष हैं जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के समक्ष हुई लंबी सुनवाई के दौरान वहां नियमित रूप से पहुंचे भी नहीं थे.’ उन्होंने कहा कि इस दलील को भी नहीं स्वीकार किया जाना चाहिये कि फैसला देने पर प्रतिकूल परिणाम आ सकते हैं. {mospagebreak}
उन्होंने कहा, ‘अगर परिणाम के बारे में दी गयी इस दलील को स्वीकार किया जाता है तो यहां तक कि जमानत देने का आग्रह करते हुए दायर याचिका के भी नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने कोशिश की और मामले को बातचीत के जरिये हल करने के लिये बार बार प्रयास किये.’ वरिष्ठ वकील ने कहा कि मामले को अदालत से बाहर बातचीत के जरिये हल करने के लिये और समय देने की जरूरत नहीं है.
मामले के एक और पक्ष की ओर से पेश हुए पूर्व अटार्नी जनरल सोली सोराबजी ने प्रसाद की दलील से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि न्यायिक प्रक्रिया परिणाम की बंधक बन कर नहीं रह सकती. पूर्व प्रधानमंत्री ने भी मामले को बातचीत से हल करवाने के प्रयास किये थे लेकिन वह भी विफल रहे. सोराबजी ने कहा, ‘हम पूरी तरह मामले का समाधान निकाले जाने के पक्ष में हैं लेकिन साथ ही इस आग्रह के पूरी तरह खिलाफ हैं कि मामले का फैसला टाल दिया जाये.’
उच्चतम न्यायालय ने त्रिपाठी की याचिका के आधार पर गत 23 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के अयोध्या मालिकाना हक विवाद पर 24 सितम्बर को फैसला सुनाने पर एक सप्ताह के लिये अंतरिम रोक लगा दी थी. हालांकि 23 सितम्बर को त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई करने वाली शीर्ष अदालत की दो सदस्यीय पीठ के दोनों न्यायाधीशों न्यायमूर्ति आर वी रवीन्द्रन और न्यायमूर्ति एच एल गोखले की राय अलग अलग थी.
दोनों न्यायाधीशों के विचार अलग अलग होने के कारण उन्होंने त्रिपाठी की याचिका पर संबद्ध पक्षों को नोटिस जारी कर दिया और यह मामला प्रधान न्यायाधीश के सुपुर्द करते हुए बड़ी पीठ के गठन का आग्रह किया था. त्रिपाठी ने अपनी याचिका में साठ साल पुराने इस मामले का हल बातचीत से निकाले की संभावना तलाशने के लिये समय दिये जाने और इस पर फैसला टालने का आग्रह किया था.