जब सारा हिन्दुस्तान आक्रोश में जी रहा हो, भ्रष्टाचार, महंगाई, और अव्यवस्था से लोग दो-दो हाथ कर रहे हों तो उस समय कोई और बात अच्छी नहीं लगती. ऐसे ही माहौल में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान में एक अजीब सा भाषण दिया. वह एक बार फिर भावुक हुए. अपने पिता और दादी को याद करके. उनकी शहादत को उन्होंने अजीबोगरीब ढंग से पेश किया और इसी बीच अपनी जान को खतरा भी बताया.
उनकी जान को तो खतरा है ही, तभी तो उन्हें जेड प्लस श्रेणी की सुऱक्षा मिली हुई है और स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप के लोग उनकी सुरक्षा का काम देखते हैं. लेकिन यह खतरा किससे है और क्या उनकी दादी और पिता की हत्या में एक ही तरह के लोग थे? अगर नहीं तो उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे कौन से लोग हो सकते हैं. सिर्फ साम्प्रदायिक तनाव की बात करके वे किसी पर निशाना नहीं साध सकते. किसी की जान पर खतरा होना बहुत बड़ी बात है और इसे सार्वजनिक स्थान पर बताया जाना या तो संगीन मामला है या सरासर हास्यापद.
अगर राहुल गांधी की सलाहकार टोली यह सोचती है कि इस तरह के बयान दिलवाकर वे उन्हें सहानुभूति दिलवा देंगे तो यह उनकी गलतफहमी है. हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ राहुल गांधी अपने बयानों में हमेशा आक्रामक रहे हैं (या उन्हें आक्रामक बनाया जाता है) लेकिन उनकी सरकार आज तक तमाम प्रयासों के बाद भी उनके खिलाफ कुछ साबित नहीं कर पाई है. यानी अगर बीजेपी देश में ध्रुवीकरण करना चाहती है तो वे इस तरह के बयान देकर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं.
दरअसल राहुल गांधी यह नहीं समझ पाए हैं कि जनता में कैसी छवि बनाएं. उनके सलाहकार यह चाहते भी नहीं हैं कि उनकी कोई छवि बने. अगर ऐसा नहीं है तो जब अपराधी एमपी, एमएलए को बचाने वाले विधेयक की सरेआम आलोचना करके उन्होंने जो सहानुभूति और लोकप्रियता बटोरी थी उसे ही आगे बढ़ाने का काम करते. यह एक अच्छा विकल्प होता.
जनता एक आक्रामक राहुल गांधी को देखना चाहती है जो अपने ही सिस्टम से लड़ रहा है न कि मृत्यु विलाप करने वाले राहुल को. वह समस्याओं से घिरी हुई है और उसे इससे उबारने वाला आक्रामक हीरो चाहिए न कि भय में जीता एक कमजोर सा दिखने वाला नेता.