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ओपीनियन: राहुल गांधी छुट्टी पर क्यों गये

राहुल गांधी का अचानक संसद के महत्वपूर्ण सत्र के दौरान विदेश चले जाना लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी इस पार्टी के लिए एक बुरी खबर है. जिस नेता से उम्मीद थी कि उसके सिर पर पार्टी का ताज सजेगा और जो इसे बुरे दिनों की छाया से बचाएगा, वह खुद ही छुट्टी पर चला गया. लेकिन सच यह है कि राहुल गांधी से ऐसे कदम की उम्मीद नहीं थी, यह कहना भी गलत होगा.राहुल ने पार्टी के कामकाज में कभी पूरी तरह से दिलचस्पी नहीं दिखाई और न ही कभी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया. कई बार लगा कि वह किसी क्रांतिकारी की तरह कई नए काम करेंगे और पार्टी को नई दिशा देंगे.

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राहुल गांधी का अचानक संसद के महत्वपूर्ण सत्र के दौरान विदेश चले जाना लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी इस पार्टी के लिए एक बुरी खबर है. जिस नेता से उम्मीद थी कि उसके सिर पर पार्टी का ताज सजेगा और जो इसे बुरे दिनों की छाया से बचाएगा, वह खुद ही छुट्टी पर चला गया. लेकिन सच यह है कि राहुल गांधी से ऐसे कदम की उम्मीद नहीं थी, यह कहना भी गलत होगा.राहुल ने पार्टी के कामकाज में कभी पूरी तरह से दिलचस्पी नहीं दिखाई और न ही कभी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया. कई बार लगा कि वह किसी क्रांतिकारी की तरह कई नए काम करेंगे और पार्टी को नई दिशा देंगे.

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पार्टी की संपूर्ण पराजय के बाद तो उनसे उम्मीदें बढ़ गई थीं. लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया या कहा जिससे सोचा जा सके कि वह इस मूर्छित पार्टी को फिर से पुनर्जीवित करेंगे. पार्टी में उनकी स्थिति मजबूत तो थी लेकिन हार के बाद सोनिया गांधी के सलाहकारों ने जिस तरह से उनकी नहीं चलने दी उससे यह लगने लगा कि वह नाखुश हैं और पार्टी में पूरी तरह से बदलाव करना चाहते हैं. ज़ाहिर है इसकी इजाजत उन्हें नहीं मिली. पार्टी में साफ तौर से दो धड़े हो गए. पार्टी के खुर्राट और पुराने नेता उनकी चलने नहीं दे रहे थे. चुनाव के पहले भी उनके कई प्रिय पात्रों की उनके पदों से छुट्टी कर दी गई थी.

राहुल चाहते थे कि पार्टी को पूरी तरह से नया रूप दिया जाए और नए चेहरों को जगह दी जाए. ऐसा लगता है कि उनकी यह बात नहीं मानी गई. ऐसा लगता है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी उनकी बातों को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हें पार्टी में विद्रोह का खतरा दिखाई दे रहा था. कांग्रेस में पुराने बनाम नए की लड़ाई कोई नई नहीं. राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी ने भी यह लड़ाई लड़ी थी और पार्टी में ओल्ड गार्ड का सफाया कर दिया था.निजलिंगप्पा और कामराज के नेतृत्व में ओल्ड गार्ड ने तब इंदिरा गांधी को बांध सा दिया था लेकिन उन्होंने बड़ी चतुराई से पार्टी पर कब्जा कर लिया. वह राजनीतिक दूरदर्शिता और समझ का कमाल था. लेकिन राहुल ऐसा कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं. वह उदासीन से रह रहे हैं और पार्टी में जड़ से जुड़ नहीं पाए. इतना ही नहीं उनके इर्द-गिर्द चापलूसों की पूरी फौज है जो उन्हें अपने विवेक से काम नहीं करने दे रही है. उनके साथ ऐसे लोग भी हैं जिनकी राजनीति महज अपने को ऊपर स्थापित करने का जरिया है.

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ऐसे लोगों की सूची लंबी है और दुर्भाग्यवश राहुल उनके करीब हैं. इनमें ऐसे नेता बड़ी तादाद में हैं जो चुनावी राजनीति से दूर रहे हैं और बयानों की राजनीति भर करते हैं. ऐसा नहीं है कि सोनिया गांधी के पास ऐसे लोग नहीं हैं लेकिन राहुल को ऐसे लोगों से छुटकारा पाना ही होगा. उनके इर्द-गिर्द जो लोग हैं उनके बूते तो वह भारत की राजनीति में धमाकेदार वापसी की उम्मीद तो नही कर सकते हैं.

बहरहाल अब सवाल है कि कांग्रेस इस महत्वपूर्ण सत्र में अपने तेवर कैसे दिखाएगी? छोटी-छोटी पार्टियां कांग्रेस का विकल्प बनकर संसद में अपनी उपस्थिति जता रही हैं. देखना है कि पार्टी के कर्णधार अब कैसे कदम उठाते हैं.

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