चुनावी सर्वे सामान्य सी बात है, लेकिन इस बार के सर्वे चुनाव परिणामों की जो संभावित तस्वीर पेश कर रहे हैं, उनसे तो यही लगता है कि इस बार दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और बीजेपी बहुमत से काफी दूर रहेंगे और एक ऐसी त्रिशंकु लोकसभा बनेगी, जिसमें जोड़-तोड़ की पूरी गुंजाइश रहेगी.
यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद बात होगी. हमने गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को देखा है कि कैसे बड़े फैसले लेने में उनके हाथ बंधे होते हैं और कैसे सहयोगी दल आपनी बातों को राष्ट्रहित से भी ऊपर रखते हैं. यूपीए-2 सरकार के कामकाज में सबसे बड़ी बाधा सहयोगी दलों का असहयोगात्मक रुख रहा. उन्होंने अपने निहित स्वार्थों की खातिर कामकाज में ढेर सारी बाधाएं पहुंचाई और कई बार सरकार की नीतियों को अपने हिसाब से मोड़ा.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है डीएमके, जिसने यूपीए सरकार की कई नीतियों पर प्रभाव डाला. तमिलों की सहानुभूति बटोरने के लिए उसने भारत की विदेश नीति में आत्मघाती बदलाव करवाया, जिसका नतीजा है कि चीन श्रीलंका में अपने पैर जमाता जा रहा है और हमें चारों ओर से घेरने की अपनी नीति में सफलता पा रहा है. तात्पर्य यह है कि गठबंधन सरकारों की अपनी विवशता है और यह कई बार देश के लिए परेशानी का सबब बनती है. आने वाले समय में यह देश के सामने और समस्याएं खड़ी करेगा.
एक और बात है कि कांग्रेस को इन सर्वे रिपोर्ट को पूरी तरह नकार नहीं देना चाहिए. उसे चिंतन और आत्म मंथन करना होगा कि आखिर क्यों यह हालत पैदा हुई है कि आज उसकी साख इतनी गिर गई है कि उसे महज सौ के आंकड़े के पास पहुंचता दिखाया जा रहा है? उसे अभी भी चेत जाना चाहिए और कुछ कर दिखाना चाहिए. अभी लोकसभा चुनाव में इतना वक्त तो है कि वह कुछ ठोस कर दिखा सकती है. पॉलिसी पैरालिसिस न तो उसके हित में है और न देश के हित में.
(मधुरेंद्र प्रसाद सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और हमारे संपादकीय सलाहकार हैं)