scorecardresearch
 

बंटवारे से बर्बादी तक... ये हैं नापाक पड़ोसी पाकिस्तान की 5 बड़ी गलतियां!

पाकिस्तान 1947 के बाद से ही अमेरिकी खेमे में शामिल होने के लिए वाशिंगटन डीसी के चक्कर काटने लगा था. लेकिन शुरुआत में अमेरिका ने उसे घास नहीं डाला.

Advertisement
X
अमेरिका के हाथ में पाकिस्तान का रिमोट
अमेरिका के हाथ में पाकिस्तान का रिमोट

Advertisement

ये कहानी 70 साल पुरानी है. साल 1947 में दुनिया के नक्शे पर दो मुल्कों का जन्म हुआ. एक भारत, दूसरा पाकिस्तान. पाकिस्तान इस्लाम धर्म के आधार पर बनने वाला दुनिया का पहला मुल्क बना. बंटवारे के बाद से लेकर आज तक पाकिस्तान ने ऐसी 5 अहम गलतियां की हैं, जिसने उसे ना सिर्फ बर्बादी के कगार पर खड़ा कर दिया है, बल्कि दो टुकड़ों में भी बांट दिया. यहां हम आपको बंटवारे से लेकर बर्बादी तक पाकिस्तानी की वो 5 गलतियां बताएंगे. ये वो गलतियां जिसने पाकिस्तान के इतिहास की तारीखें बदल दी.

1- पाकिस्तान का रिमोट वॉशिंगटन डीसी के हाथ में पहुंचना
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका तेजी से महाशक्ति बनकर उभरने लगा. लेकिन रूस ने उसे कड़ी टक्कर दी. लिहाजा विश्व दो खेमे में बंट गया. द्वितीय विश्व युद्ध के दो साल बाद 1947 में आजाद हुए भारत और पाकिस्तान के सामने दो रास्ते थे. या तो अमेरिकी खेमे में जाते या फिर रूस के. भारत ने तीसरा रास्ता चुना गुटनिरपेक्षता का. यानी दोनों से बराबर दूरी बनाकर अपनी खुद की राह बनाना. लेकिन पाकिस्तान ने यहां पर सबसे बड़ी गलती कर दी.

Advertisement

पाकिस्तान 1947 के बाद से ही अमेरिकी खेमे में शामिल होने के लिए वाशिंगटन डीसी के चक्कर काटने लगा था. लेकिन शुरुआत में अमेरिका ने उसे घास नहीं डाला. साल 1953 में अमेरिकी सियासत में एक बदलाव हुआ. जॉन फॉस्टर डलेस रिपब्लिकन राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर के विदेश मंत्री बने. डलेस ने 1954 में अमेरिका के लिए एक नीति बनाई. ये नीति थी पूरी दुनिया में रूस के खिलाफ शीत युद्ध को तेज करना.

रूस को घेरने के लिए अमेरिका को मध्य एशिया, साउथ एशिया से लेकर पूरी दुनिया में सामरिक सहयोगी चाहिए थे. बस यहीं पाकिस्तान की लॉटरी लग गई. दरअसल, पाकिस्तान के जरिए अमेरिका अफगानिस्तान में लगातार बढ़ रहे रूस के दखल को खत्म करना चाहता था. लिहाजा, इस दौर में अमेरिका ने पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों के साथ सैन्य गठबंधन किए. जिसमें बगदाद पैक्ट, सेंटो, सीटो जैसे पैक्ट शामिल हैं. पाकिस्तान के जरिए अपने हितों को साधने के लिए अमेरिका ने खुले हाथ से पाकिस्तान को पैसे और हथियार देने शुरू किए. अमेरिका के इशारे पर पाकिस्तान अफगानिस्तान में जेहाद का नारा बुलंद करने लगा.

कुल मिलाकर ब्रिटिश बेड़ी से आजाद हुआ पाकिस्तान अमेरिका का गुलाम बन गया. अब उसका रिमोट कंट्रोल लंदन की जगह वाशिंगटन डीसी से संचालित होने लगा. बंटवारे के बाद अमेरिका के साथ जाने का पाकिस्तान के हुक्मरानों का फैसला बेहद दूरगामी निकला. मोटे तौर पर इसके तीन नतीजे सामने आए-

Advertisement

(a) पाकिस्तान की इकोनॉमी और फौज पूरी तरह से अमेरिका के पैसों पर निर्भर हो गई. मुफ्त के पैसों ने पाकिस्तान के हुक्मरानों को निकम्मा बना दिया. आज भी जैसे ही अमेरिका हाथ पीछे खींचता है पाकिस्तान के हाथ-पांव फूलने लगते हैं.

(b) अमेरिका को पाकिस्तान के नागरिकों की नहीं बल्की उसकी उस फौज की जरूरत थी, जिसका इस्तेमाल वो अफगानिस्तान में पैर फैला रहे रूस को रोकने के लिए करना चाहता था. लिहाजा पाकिस्तान में फौज की अहमियत ज्यादा बढ़ गई, जोकि लोकतंत्र की भावना के खिलाफ था.

(c) लोकतंत्र में नियम-कानून, चुनाव, न्यायपालिका ताकतवर होती है, लेकिन अमेरिका की तरफ जाने से पाकिस्तान में इन सबका अस्तित्व खतरे में पड़ गया, क्योंकि अमेरिका ऐसा नहीं चाहता था. पाकिस्तान में ना तो चुनाव हुए ना ही न्यायपालिका को वो दर्जा मिला जो जम्हूरियत में मिलता है. हुआ ये कि नागरिकों के अधिकार को ताख पर रखते हुए नौकरशाह और सेना ने गठजोड़ बना कर सत्ता पर कब्जा कर लिया.

नतीजा ये हुआ की पाकिस्तान में सेना सर्वेसर्वा हो गई. सेना के प्रभाव में भारत के साथ तीन युद्ध (1947, 1965, 1971) हुए. तीनों ही युद्धों में पाकिस्तान की बुरी तरह से हार हुई और अंतः 1971 में पाकिस्तान दो भागों में टूट गया. नया देश बना बांग्लादेश. इस बीच पाकिस्तान में ना तो उद्योग धंधे खड़े हो पाए और ना ही कृषि पर ध्यान दिया गया. नतीजा ये हुआ कि अमेरिका से मिले खैरात के पैसों से पाकिस्तान में सेना और नौकरशाह वर्ग तो बहुत अमीर हो गया, लेकिन जनता गरीबी से नीचे जीवन जीने को मजबूर हो गई. बेरोजगार युवकों को फौज ने पैसे का लालच देखकर अफगानिस्तान और भारत के खिलाफ आतंक के रास्ते पर ढकेल दिया. गरीबी, भूखमरी और आतंकवाद पूरी दुनिया में पाकिस्तान की पहचान बन गई.

Advertisement

2- पाकिस्तानी फेडरल कोर्ट का दूरगामी फैसला
पाकिस्तान की दूसरी सबसे बड़ी गलती का ताल्लुक पाकिस्तान की न्यायपालिका से हैं. पाकिस्तान में 1954 में संविधान सभा बनी. उस समय गवर्नर जनरल थे गुलाम मोहम्मद. उन्होंने संविधान सभा को भंग कर दिया. उस समय पाकिस्तान में गवर्नर जनरल और राष्ट्रपति का एक ही ओहदा होता था. मौलवी तमीजुद्दीन उस समय सिंध असेम्बली के स्पीकर थे. तमीजुद्दीन हाई कोर्ट चले गए. सिंध हाई कोर्ट ने बड़ा फैसला देते हुए गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद के फैसले को ना सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि संविधान सभा को फिर से बहाल कर दिया. गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद इसके खिलाफ अपील में फेडरल कोर्ट पहुंच गए. उस समय पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट को फेडरल कोर्ट कहते थे. फेडरल कोर्ट के चीफ जस्टिस थे मोहम्मद मुनीर. जस्टिस मुनीर ने 1955 में फैसला दिया और एक नई मिसाल कायम करते हुए 'कानून-ए-जरूरत' की नई अवधारणा दी. उन्होंने अपने फैसले में कहा कि 'लॉ ऑफ नेसेसिटी' के तहत गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद का फैसला सही था. पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार 'नजरिया-ए-जरुरत' नाम की ऐसी अवधारणा सामने आई जिसने पाकिस्तान की किस्मत ही बदल दी. लोकतंत्र की हत्या करते हुए संवैधानिक संस्था के वजूद को मिटा दिया गया. पाकिस्तान के इस संवैधानिक संस्था को आगे जाकर भारत की तरह की एक संसदीय सभा के रूप में परिवर्तित होना था. इसी संवैधानिक संस्था को आगे चलकर पाकिस्तान में चुनाव का ऐलान करना था.

Advertisement

'कानून-ए-जरूरत' पाकिस्तान की गले की फांस बन गया. इसी कानून की वजह से बाद में अयूब खान के तख्ता पलट को कानूनी जामा पहनाया गया, याहया खान ने तख्ता पलट को सही ठहराया. जिया-उल-हक ने तख्तापलट को कानून सम्मत बताया और सबसे आखिर में जनरल परवेज मुशर्रफ के तख्तापलट को सही ठहराया गया. 'कानून-ए-जरूरत' का फैसला देने वाले जस्टिस मुनीर ने साल 1984 में अपनी किताब 'फ्रॉम जिन्ना टू जिया' में खुद माना की उनके एक फैसले से पाकिस्तान की तकदीर बदल गई.

3- पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा का विवादित फैसला
1954 में प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने एक विवादित फॉर्मूला पेश किया. इस फॉर्मूले को पाकिस्तान के इतिहास में बोगरा फॉर्मूला के नाम से जाना जाता है. फॉर्मूले के तहत पश्चिम पाकिस्तान के सभी सूबों को (राज्यों, रियासतों, स्वात, कबाइली इलाकों को मिलाकर) मिलाकर एक सूबा बनाया जाना था. इस फैसले में स्वात, कबाइली और प्रांत की स्थानीय स्वयत्ता, पहचान, संस्कृति को खत्म करके इन्हें एक राज्य में शामिल करने का फैसला किया गया. इसी तरह से पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है) को एक सूबे में बांधने की बात कही गई. 1954 में बोगरा साहब ने ऐलान किया और 1955 में इन्होंने ऐसा कर दिया. इसके बाद आयूब खान जब सत्ता में आए तो उन्होंने इसे कानूनी रूप से और मजबूत करके लागू कर दिया. पाकिस्तान को दो सूबो में (पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान) में बांट दिया गया. सन 1962 के पाकिस्तानी संविधान में भी इसे अमलीजामा पहना दिया गया.

Advertisement

इस विवादित फैसले का बहुत ही भयानक नतीजा सामने आया. पाकिस्तान के अलग-अलग सूबों में आजादी की आवाज बुलंद होने लगी. 1955 के बाद से आज तक बलूचिस्तान पूरी दुनिया में यही कह रहा है कि बंदूक की नोंक पर पाकिस्तान से उसे अपने कब्जे में लिया है. बलुचिस्तान का कहना है कि 1947 के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना ने बलुचिस्तान की जनता से जो वादा किया था पाकिस्तान के हुक्मरान उसका पालन नहीं कर रहे हैं. जिन्ना ने वादा किया था कि बलुचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा भले ही होगा लेकिन उसका अपना खुद का शासन होगा. अपना कानून होगा. 1955 के बाद से यही बात पख्तून कहने लगे कि उन्हें तो पख्तुनिस्तान बनाना था, उन्हें खुद अपना कानून बनाना था. शासन तंत्र खड़ा करना था. लेकिन उन्हें तो जबरन सेना ने बंदूक की नोंक पर पाकिस्तान का हिस्सा बना रखा है.

पाकिस्तान में बंटवारे को (बलूचिस्तान, पख्तुनिस्तान) लेकर जो आवाज उठने लगी वो 1955 में प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा के उस फैसले के बाद उठने लगी जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के पूर्वी और पश्चिमी भाग के तमाम सूबों को मिलाकर दो अगल-अलग यूनिट या राज्य बनाने का फैसला किया.

पाकिस्तान को एक केंद्रीय यूनिट बनाने के बोगरा साहब के फैसले को जब सत्ता में आए अयूब खान ने जबरन देश पर थोपना चाहा तो अयूब खान के कार्यकाल में ही बलूचिस्तान में पहली बार विद्रोह शुरु हुआ. अयूब खान के वक्त में ही जो बीज पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बोए गए उसने पाकिस्तान में आर्थिक रूप से भेदभाव, क्षेत्रीय स्तर पर लोगों के साथ भेदभाव, लोगों के उत्पीड़न का सिलसिला शुरु कर दिया. पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है) कहने लगा कि हम जूट से कमाते हैं और फायदा पश्चिम पाकिस्तान वाले ले जाते हैं, सारा विकास सिर्फ पश्चिमी पाकिस्तान में हो रहा है. हालाकि की हकीकत ये थी की पश्चिम पाकिस्तान में भी विकास सिर्फ पंजाब प्रांत और कराची में हो रहा था. बलूचिस्तान और सीमांत इलाकों में कोई भी विकास नहीं हुआ. और ना ही विकास सिन्ध के इलाकों में दिखाई दिया.

Advertisement

इल्जाम लगने लगा की पाकिस्तान में पंजाब क्षेत्र के रहनेवाले लोग हावी हैं. पंजाबी सिविल मिलिट्री के लोगों का पाकिस्तान पर राज है. इस तरह की भावना की वजह सिर्फ पाकिस्तान को एक सूबे में जबरन बनाने की वजह से शुरु हुआ और इसका पहला नतीजा 1971 में दिखा जब पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट गया. अब बलुचिस्तान भी पाकिस्तान से अलग होने के लिए लड़ रहा है. अगर पाकिस्तान ने शुरु से ही भारत की तरह क्षेत्रीय अस्मिता को ध्यान दिया होता तो पाकिस्तान में विद्रोह की आवाजें ना उठती.

यहां एक बात समझनी होगी कि फौज और नौकरशाही हमेशा केंद्रीय कमांड पर यकीन करती है. पॉवर का कमांड एक हाथ में रखने की अवधारणा फौज की है. विकेंद्रीकरण की नीति राजनीतिक लोग अपनाते हैं. सियासत दां शक्ति को बांटने पर विश्वास करते हैं. यही वजह है कि मुशर्रफ के कार्यकाल में जब केंद्रीय कमांड शुरु हुआ तो बलूचिस्तान में विद्रोह की आवाज तेज हो गई. इस दौर में पाकिस्तान के हर मसले पर फौज के जरनलों की अहमियत बढ़ गई.

4- पूर्वी पाकिस्तान में हुए चुनाव के नतीजों को मान्यता नहीं देना
पाकिस्तान की सत्ता में जब याहया खान आए तो वहां पर चुनाव हुए. चुनाव हुए तो बंगाल (पूर्वी पाकिस्तान) के लोगों को एक मौका मिल गया अपने गुस्से का इजहार करने का. शेख मुजीबुर्रहमान के लिए पूर्वी पाकिस्तान में जमकर वोट हुए और उनकी आवामी लीग को बहुमत मिला. पाकिस्तान की सबसे बड़ी गलती ये थी उसने चुनाव के नतीजों को मानने से इंकार कर दिया. अगर पाकिस्तान उस वक्त चुनाव का फैसला मान लेता तो उसके टुकड़े नहीं होते. पाकिस्तान की सिविल-मिलिट्री नौकरशाही ने जिसमें अब राजनीतिक लोग भी शामिल हो गए थे (जुल्फीकार अली भुट्टों ने पश्चिमी पाकिस्तान में बहुमत हासिल किया था) सब ने मिलकर मुजीबुर्रहमान को इजाजत नहीं दी की वो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने. खास बात ये थी कि सेना के इस फैसले के साथ जुल्फीकार अली भुट्टो भी थे. लिहाजा, पूर्वी पाकिस्तान में इसका जमकर विरोध हुआ और विद्रोह शुरु हो गया. पाकिस्तान ने इसके खिलाफ फौजी कार्रवाई शुरू की. लाखों लोग मौत के घाट उतार दिए गए. पूर्वी पाकिस्तान से भारत में शरणार्थी आने लगे. भारत ने मुजीब के मदद की पेशकश की. मुजीब ने मान लिया. उन्होंने ने कहा कि पाकिस्तान के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानियां बंगाल के मुसलमानों ने दी थी लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान उसे हमेशा से हिकारत की नजर से देखता रहा. 1965 के युद्ध के बाद से ही भारत-पाकिस्तान के रिश्ते बेहद तल्ख चल रहे थे. हिन्दुस्तान ने हस्तक्षेप किया और पूर्वी पाकिस्तान में वहां की जनता की मदद के लिए अपनी सेना भेज दी. पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए.

5- अफगानिस्तान में पाकिस्तान का बेवजह दखल देना
अफगानिस्तान हमेशा से रूस का सेटेलाइट था. वहां अंदरूनी हालात इस तरह से हुए की कम्यूनिस्ट पार्टी ने टेकओवर कर लिया. पहले भी जब वहां पर राजशाही थी तब भी उनके ताल्लुकात रूस के साथ थे. जिस तरह से पाकिस्तान अमेरिका की बाहरी चौकी थी, उसी तरह से अफगानिस्तान भी रूस की बाहरी चौकी थी. ये बात अमेरिका को खटकती थी. अमेरिका ने पाकिस्तान को कहा अफगानिस्तान में जेहाद शुरू करो. इसके लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को पैसे देने शुरू किए. जिया-उल-हक ने अमेरिका से पैसा और हथियार लेने के लालच में बेवजह अफगानिस्तान पर धावा बोल दिया. पाकिस्तान में बुद्धजीवी पाकिस्तान के इस कदम को किराए के कातिल की संज्ञा देते हैं. अफगानिस्तान में ये भावन फैल गई कि अमेरिका के पैसे पर पाकिस्तान किराए का कातिल बन गया है.

8 से 10 साल के बाद जब अमेरिका यहां से चला गया तो पाकिस्तान अकेला पड़ गया. इसी बीच पाकिस्तान में 10 साल तक जिया-उल-हक साहब का सैनिक शासन चलता रहा. चुनाव नहीं हो पाए. इस दौरान अमेरिका से पाकिस्तान को खूब पैसा मिला. पैसा मिला तो फौज की ताकत बढ़ गई. फौज की क्षमता भी बढ़ गई. फौजी अफसरों और नौकरशाहों की तिजोरी भरती रही लेकिन आवाम को कुछ नहीं मिला. चूंकि फौज को जेहाद को प्रमोट करना था, अलोकतांत्रिक रवैए को न्यायोचित ठहराना था, लिहाजा फौज का झूठा इस्लामीकरण किया गया. इस्लाम के नाम पर पाकिस्तानी जनता को बरगलाया गया कि चूंकि फौज इस्लाम की रक्षा कर रही है, इसलिए पाकिस्तान में लोकतंत्र की जरुरत नहीं है.

इसका नतीजा बेहद खतरनाक हुआ. पाकिस्तान में इस्लाम के नाम पर मार-काट मच गई. संस्कृतियों में टकराव शुरु हो गया. जेहाद, आतंकवाद, हिंसा, शिया-सुन्नी संघर्ष को फौज ने हवा दी. आज जिस कट्टरपंथी ताकतों से पाकिस्तान जूझ रहा है वो सब अफगानिस्तान में अमेरिका के इशारे पर बेवजह दखल देने की वजह से है. वॉर ऑन टेरर भी इसी वजह से सामने आया. आज पाकिस्तानी फौज इस बात को लेकर परेशान हैं कि जेहादी अब उल्टा उन्हीं के गले पड़ गए हैं. आज पाकिस्तान में शिया-सुन्नी संघर्ष बढ़ गया है, तालिबानी बरेलवियों को मार रहे हैं. लड़ाई हो रही है कि इस्लाम है क्या? ये सारी लड़ाइयों की वजह 1980 के दशक में जिया-उल-हक के दौरान अफगानिस्तान में पाकिस्तान के दखल का नतीजा है. इसका परिणाम आजतक भुगत रहा है पाकिस्तान.

पाकिस्तान के दखल से पहले काबुल में पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया से लोग घूमने जाते थे. अफगानिस्तान का मौसम बहुत अच्छा था और वहां पर रूस के दखल की वजह से पश्चिमी संस्कृति का बोल बाला था. ये सारी जेहाद, लड़ाई, मार-काट, खून-खराबा जो 1980 में शुरू हुआ और 10 साल रहा. फिर इसके बाद 10 साल अफगानिस्तान में जेहादियों और मुजाहिद्दीनों का गृहयुद्ध चला. और फिर उसके बाद तालिबान, अमेरिका और दुनिया भर के आतंकियों का गढ़ बन गया अफगानिस्तान. पिछले 30 साल लेकर अफगानिस्तान में अस्थिरता का माहौल है उससे पहले वहां पर अमन-चैन था. अमेरिका से साथ मिलकर पाकिस्तान ने उसे नर्क बना दिया और अब अफगानिस्तान के आतंकवादियों ने पाकिस्तान को नर्क बना दिया है.

Advertisement
Advertisement