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अयोध्‍या मामला: मुस्लिम समुदाय में फिक्रमंदी का आलम

हाइकोर्ट के बहुप्रतीक्षित फैसले ने मुसलमान समुदाय को दोफाड़ किया, एक हिस्सा बातचीत का हामी तो दूसरा सुप्रीम कोर्ट का द्वार खटखटाने को तैयार.

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रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने पहले तो हिंदुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर बांट दिया और अब 60 साल पुराने झगड़े में विवादित जमीन को तीन भागों में बांटने के इलाहाबाद हाइकोर्ट के बहुप्रतीक्षित फैसले ने मुस्लिम समुदाय को ही विभाजित कर दिया है.

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एक तरफ मुख्य रूप से नौजवानों में विवेकशील तत्व हैं, जो हाशिये पर खड़े होने के बावजूद अमनपसंदों की भूमिका निभा रहे हैं, और दूसरी तरफ मुल्ला और समुदाय के रहनुमा हैं, जो हालात का तुरत-फुरत जायजा लेने के बाद फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं.

इस मामले में प्रथम वादी 90 वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी कहते हैं, ''बहुत हो चुका. मामला जल्दी और हमेशा के लिए निबटा दीजिए.'' दूसरे छोर पर जनता के जज्‍बात को उभारने वाले दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी हैं, जिनका कहना है कि समुदाय को फिर ''धोखा दिया गया'' है. सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के 'सांत्वनापूर्ण' विकल्प को लेकर वे शंका जताते हैं, ''मेरा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट भी ऐसा ही फैसला सुनाएगा.''{mospagebreak}लेकिन सभी बहसें इन शब्दों के साथ खत्म होती हैं: शांति बनाए रखें, गुस्सा थूक दें. ऐसे सोच की वजह भी है. लखनऊ के नरमपंथी मुल्ला मौलाना खालिद रशीद फिरंगीमहली कहते हैं कि मुसलमान हालांकि फैसले को लेकर ज्‍यादातर नाखुश हैं, पर फिर भी मिल-जुलकर इसका हल तलाश किया जा सकता है. ''हमारे रहनुमाओं को बदलते मुस्लिम मानस को भी पढ़ना चाहिए और इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि इस बार गुस्सा सड़कों पर क्यों नहीं फूट पड़ा.''

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तिल्लेवाली मस्जिद के इमाम मौलाना शाह फजल-ए-रहमान नदवी का कहना था कि पहले की तरह उन्हें यकीन है कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करेंगे, ''केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में अपील का फैसला तो किया है, पर इससे बातचीत के जरिए हल निकालने का रास्ता बंद नहीं हो जाता.'' नब्बे वाले दशक में आग उगल रहे दोनों पक्षों के वरिष्ठ नेता पीढ़ीगत बदलाव की वजह से चुप्पी साधे हुए हैं.

वरिष्ठ भाकपा नेता अतुल कुमार अनजान ने कुछ मुस्लिम मित्रों के साथ बातचीत में कहा कि 1986 (जब बाबरी मस्जिद का ताला खोला गया था) के बाद की नई पीढ़ी जवान हो गई है और दिसंबर 1992 में इसे ढहाए जाने के बाद की पीढ़ी तो उससे भी जवान है. ''वह अतीत में नहीं रहना चाहती. वह भविष्य को लेकर, शिक्षा और अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित है. शायद इसीलिए बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद जवान हुई इस नई पीढ़ी ने इस मुद्दे के प्रति कोई भावनात्मक लगाव नहीं दिखाया.''{mospagebreak}इसके बावजूद समुदाय में कुछ नेता जोर देकर कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में अपील करना ही एकमात्र समाधान है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वरिष्ठ नेता अब्दुल रहीम कुरैशी ने अदालत के बाहर बातचीत से किसी समाधान की संभावना का खंडन किया. अदालत के फैसले और उसके निहितार्थों को लेकर बोर्ड की कानूनी समिति की 9 अक्तूबर को नई दिल्ली में बैठक होगी और फिर इस पर 16 अक्तूबर को लखनऊ में विचार किया जाएगा. कुरैशी कहते हैं, ''लगता है, हम फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे.''

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उधर, सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जफर अहमद फारूकी ने सुलह-समझैते की बात करने वालों से खुद को खुलेआम अलग कर लिया है. ''केवल मुझे मामले या अदालत के बाहर समझैते के बारे में बात करने के लिए अख्तियार दिया गया है.'' दोनों बोर्डों के वकील जफरयाब जिलानी का कहना था कि मामले को इसलिए चुनौती देनी पड़ रही है कि हाइकोर्ट ने 'आस्था' के आधार पर फैसला किया, और भारत में साक्ष्य कानून आस्था को सबूत नहीं मानता है.

बहरहाल, दशक भर से मामले की पैरवी कर रहे जिलानी फैसले के बाद चर्चा के केंद्र में हैं. मुस्लिम नेताओं के एक वर्ग ने उन पर मामले को ठीक से न लड़ने का आरोप लगाया है. कहा जा रहा है कि वक्फ बोर्ड ने 10 साल के दौरान दूसरा वकील क्यों नहीं कर लिया. इसका जवाब पाने की जगह मुसलमानों का एक वर्ग बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी के संयोजक जिलानी के बारे में ये गड़े मुर्दे उखाड़ रहा है कि 1992 में मस्जिद ढहाने से पहले विहिप और अशोक सिंघल ने उन्हें घूस दी थी. उर्दू दैनिक सहाफत ने एक खबर छापी कि जिलानी को घूस के तौर पर लखनऊ में 'राम भवन' नामक मकान उपहार में दिया गया.{mospagebreak}

पंजाब के शाही इमाम मौलाना हबीबुर्रहमान का कहना है कि देश भर के मुसलमान फैसले को लेकर हालांकि नाराज हैं, लेकिन उन्हें सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दिए जाने का इंतजार है. उन्होंने समुदाय को मायूस न होने के लिए कहा क्योंकि इस्लाम में मायूसी को कुफ्र माना गया है.

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पीढ़ीगत बदलाव के अलावा मुसलमानों के चुप रहने के दूसरे कारण भी हैं. एक तो यह कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद हिंदीभाषी राज्‍यों में अनेक ऐसे नेता निकल आए जिनके नाम मुस्लिम नेताओं की तरह बच्चे-बच्चे की जबान पर आ गए. हिंदू नेताओं ने हर तरीके से राम- जन्मभूमि पर मंदिर बनाने की, तो मुसलमान नेताओं ने मस्जिद के पुनर्निर्माण की कसमें खाईं.

मुसलमान मानस भी बदला खासकर इसलिए कि आग उगलते नेता बूढ़े हो गए और युवा पीढ़ी को ज्‍यादा दिलचस्पी नहीं रही. बदलते हालात में न तो बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी और न ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या जमात-ए-इस्लामी हिंद ने इस बार कोई भड़काऊ भाषण दिए.{mospagebreak}इसकी जगह बोर्ड ने मुस्लिम सुमदाय से शांत रहने की अपील की और उनसे कानूनी जीत की स्थिति में खुशी न मनाने और हार की स्थिति में गुस्सा न जताने की अपील की थी. ईंट का जवाब पत्थर से देने के नारे लगाने वाले नेता चुप्पी साधे रहे या जीवित नहीं हैं. आध्यात्मिक रहनुमा रहे अली मियां उर्फ मौलाना अबुल हसन नदवी, मुस्लिम मस्जिद के जुल्फिकार-उल्ला, सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी, मुजफ्फर 'सैन कछोछवी, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी और बोर्ड के प्रमुख का.जी मुजाहिद-उल-इस्लाम अब जीवित नहीं हैं जबकि ऑल इंडिया मजलिस-ए-मशवरात के अध्यक्ष सैयद शहाबुद्दीन अधिक सक्रिय नहीं हैं.

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मुसलमान भले ही विवेक दिखा रहे हों, पर नेताओं ने सबसे बड़ी आबादी वाले इस राज्‍य में मुसलमानों के दिलोदिमाग जीतने के लिए भ्रम के बीज बोने शुरू कर दिए हैं. फैसले के तत्काल बाद मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से अयोध्या में विवादित भूमि पर यथास्थिति लागू करने के लिए कहा, क्योंकि यह भूमि और उसके साथ लगती भूमि केंद्र सरकार के नियंत्रण में है.

उधर, कांग्रेस ने नेहरू-गांधी खानदान के इस राज्‍य में फिर से पांव जमाने के लिए फैसले का स्वागत अपने दो ब्राह्मण चेहरों-जनार्दन द्विवेदी और मोहन प्रकाश-के जरिए किया और उन्होंने इसके पक्ष में श्लोक पढ़े. पर कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अपने मुस्लिम वोट बैंक पर इस फैसले के पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंतित थे. कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने कहा, ''हम आदेश का गहराई से अध्ययन कर लें तो बता पाएंगे कि अल्पसंख्यकों के लिए इसका क्या अर्थ है.''{mospagebreak}कुछ मुसलमान सांसदों ने फैसले का समर्थन किया और कहा कि यदि इससे खुश नहीं हैं तो देश की विकास गाथा को पटरी से उतारने के बदले सुप्रीम कोर्ट का द्वार खटखटाएं. केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी समुदाय की गरिमायुक्त प्रति-क्रिया के चलते खुश थे और उन्होंने उसे यकीन दिलाया कि ''फैसले से अयोध्या की यथास्थिति नहीं बदलेगी.'' पर समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कह डाला कि मुसलमान इससे ठगा हुआ महसूस करते हैं. उन्होंने उम्मीद जताई कि ''सुप्रीम कोर्ट साक्ष्य और कानून के आधार पर न्याय करेगी.''

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बहरहाल, आशा का प्रतीक हाशिम अंसारी हैं, जो इस अध्याय का अंत चाहते हैं और सुप्रीम कोर्ट में जाने की जगह बातचीत से हल करना चाहते हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया, ''इस पर कोई सियासत नहीं होनी चाहिए. बहुत हो चुका.'' पर सवाल यह है कि मुस्लिम और हिंदू दोनों के नेता क्या अंसारी की कमजोर आवाज को सुनेंगे और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की अपनी-अपनी दुकानें बंद करेंगे?

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