नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने केए-31 हेलीकॉप्टर के कलपुजरें की खरीद जैसे कुछ मामलों में देरी या उचित प्रक्रिया नहीं अपनाने के चलते ऐसा खर्च करने के लिये नौसेना की खिंचाई की है ,जिसे टाला जा सकता था.
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कैग ने हाल ही में संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारतीय नौसेना ने रूस से अगस्त 1999 के एक अनुबंध और फिर फरवरी 2001 के एक पूरक समझौते के तहत नौ केए-31 हेलीकॉप्टर हासिल किये. इनके इस्तेमाल के दौरान नौसेना ने पाया कि हेलीकॉप्टर के साथ मिले कलपुर्जे परिचालन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिये अपर्याप्त हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, इसके बाद नौसेना वायु सामग्री निदेशालय ने नवंबर 2005 में स्टॉक, मरम्मत योग्य पुजरें, खपत के रूझान और मदों की कीमत का विश्लेषण करने के बाद 150 नये कलपुर्जे की जरूरत को अंतिम रूप दे दिया. निदेशालय ने इन 150 कलपुर्जे के लिये रूसी कंपनी मेसर्स रोसबोरोन एक्सपोर्ट को 54.57 करोड़ रुपये का प्रस्ताव दिया जिसकी सैद्धांतिक मंजूरी नवंबर 2005 में दी गयी. इस प्रस्ताव की वैधता एक दिसंबर 2005 तक ही थी.
कैग ने कहा कि यह जानने की बावजूद कि प्रस्ताव की वैधता अवधि के भीतर अनुबंध पर हस्ताक्षर करना चुनौतीपूर्ण होगा, निदेशालय ने वैधता को दिसंबर 2005 से आगे बढ़ाने के लिये कोई अनुरोध नहीं किया. सात महीने के भीतर भी नया अनुरोध पत्र जारी नहीं होने के कारण मूल प्रस्ताव की वैधता समाप्त हो गयी.
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ऑडिट में पाया गया कि अनुबंध के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने तक खरीद के हर एक चरण में देरी हुई. इसके चलते सितंबर 2006 और जून 2007 के दो प्रस्तावों की भी अवधि खत्म हो गयी. इस देरी के कारण कंपनी ने 150 कलपुर्जे की लागत को बढ़ाकर 65.58 करोड़ रुपये कर दिया.
कैग ने अपनी सख्त टिप्पणी में कहा कि खरीद के हर चरण में अत्यधिक विलंब होने के चलते 10.71 करोड़ रुपये का टाला जा सकने वाला अतिरिक्त खर्च हुआ और नौसेना की परिचालन इकाइयों को भी कलपुर्जे की उपलब्धता में देरी हुई. अपनी रिपोर्ट में कैग ने ऐसे एक और मामले का जिक्र किया है, जिसमें नौसेना ने अतिरिक्त खर्च किया.
कैग ने कहा कि विशाखापटनम स्थित एसएनएम श्रेणी के छह युद्धपोतों के लिये छह ‘विंच रील हाइड्रॉलिक’ सहित मुख्य सामग्रियों की खरीद के लिये नौ कंपनियों से मई 2005 में निविदा आमंत्रित की गयी. इनमें से तीन कंपनियों ने निविदाएं दीं.
रिपोर्ट के अनुसार, आपूर्ति होने वाले उपकरणों में कुछ बदलाव होने के कारण अंतर-परिवर्तन संबंधी प्रमाण पत्र देना जरूरी था लेकिन कंपनियों ने इस तरह का कोई प्रमाण पत्र नहीं दिया. इसके चलते फरवरी 2006 में दोबारा निविदाएं आमंत्रित की गयीं.