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यूपी के आजमगढ़ में बना ‘ज्ञान का पुल’

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक नदी पर सचमुच ज्ञान का एक पुल निर्मित हुआ है. और इस पुल का निर्माण किसी सरकारी परियोजना के तहत नहीं, बल्कि एक छोटे-से गांव के लोगों के सहयोग से हुआ है. अनपढ़ ग्रामीणों ने पुल का निर्माण इसलिए करवाया, ताकि उनके बच्चे गांव से कस्बे जाकर अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.

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आजमगढ़ का ‘ज्ञान पुल’
आजमगढ़ का ‘ज्ञान पुल’

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक नदी पर सचमुच ज्ञान का एक पुल निर्मित हुआ है. और इस पुल का निर्माण किसी सरकारी परियोजना के तहत नहीं, बल्कि एक छोटे-से गांव के लोगों के सहयोग से हुआ है. अनपढ़ ग्रामीणों ने पुल का निर्माण इसलिए करवाया, ताकि उनके बच्चे गांव से कस्बे जाकर अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.

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कुंवर नदी के उस पार स्थित सरायमीर कस्बे के विद्यालयों, महाविद्यालयों और मदरसों में विद्यार्थियों की संख्या अब बढ़ गई है. इस कस्बे में कई शिक्षण संस्थान और तकनीकी संस्थान तथा शॉपिंग क्षेत्र उपलब्ध हैं.

आजमगढ़ शहर से 35 किलोमीटर दूर तोवा गांव में नदी पर इस पुल का निर्माण कार्य 2004 में शुरू हुआ था, लेकिन धनाभाव के कारण निर्माण कार्य कई बार बाधित हुआ. पुल 2009 में बनकर तैयार हो गया. लेकिन इसे जोड़ने के लिए कोई सड़क नहीं थी. लिहाजा इस पुल पर आवागमन अंततोगत्वा 2010 में शुरू हुआ.

तोवा गांव में केवल 5वीं कक्षा तक के ही विद्यालय हैं. गांव की आबादी 5,000 है, लेकिन इस पुल ने इलाके के 50 से अधिक गांवों के लगभग एक लाख लोगों को अपने साथ जोड़ लिया है. छह खम्भों पर खड़े इस पुल के निर्माण पर 65 लाख रुपये की लागत आई है, जो चंदे के जरिए जुटाया गया.

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पूरा निर्माण कार्य तोवा गांव के शकील अहमद की देखरेख में हुआ. अहमद तो 5वीं कक्षा पास हैं, लेकिन उन्होंने लगभग 800 विद्यार्थियों के लिए कंकरीट का पुल बनाने की पहल इसलिए की, ताकि ये बच्चे बेहतर और ऊंची शिक्षा हासिल कर सकें. इस पुल को अब 'ज्ञान के पुल' के रूप में देखा जा रहा है.

अहमद ने भी इस पुल का संकल्प तब लिया था, जब 1998 की बाढ़ में दर्जनों विद्यार्थियों को नदी पार करा रही एक नाव पलट गई. इस दुर्घटना में सैफुल्ला नामक आठ वर्षीय विद्यार्थी की मौत हो गई थी और कई अन्य बच्चे घायल हो गए थे.

लाहीडीह गांव की एक घरेलू महिला, प्रीति यादव अपने पांच बच्चों को इसी पुल से विभिन्न स्कूलों में भेजती हैं. अब वह बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं रहतीं.

प्रीति कहती हैं, ‘अब मैं निश्चिंत रहती हूं और अपने सबसे छोटे बेटे और बेटी को भी स्कूल भेजती हूं, ताकि उनका भविष्य उज्वल हो सके.’

सरायमीर कस्बे के लिए दो और रास्ते हैं, लेकिन ये रास्ते 20 किलोमीटर लम्बे हैं. पुल के रास्ते सरायमीर की दूरी केवल दो किलोमीटर है. सार्वजनिक परिवहन न के बराबर है.

100 साल पुराना इस्लामिक मदरसा, मदरसातुल इसलाह में प्राइमरी सेक्शन के प्रमुख, मोहम्मद अरशद ने कहा कि तोवा और पड़ोसी गांवों से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ रही है. अरशद ने कहा, ‘अब इसलाह में क्षेत्र से अधिक विद्यार्थी आ रहे हैं. छोटी उम्र के बच्चे भी अब दाखिला ले रहे हैं.’ उन्होंने कहा, ‘इसके पहले खासतौर से बारिश के मौसम में विद्यार्थियों के लिए समय पर कक्षा में उपस्थित होना बहुत कठिन हो जाता था.’

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शकील के अनुसार, यह काम आसान नहीं था. उन्होंने कहा, ‘लोगों से चंदा जुटाना बहुत कठिन था. शुरू में लोगों ने सोचा कि मैं उन्हें धोखा दूंगा.’

शकील ने कहा, ‘मैं लोगों से चंदा मांग रहा था, इसलिए मुझे घर से बाहर कर दिया गया. मेरे बड़े भाई गांव के प्रधान थे. उन्होंने सोचा कि इससे बेइज्जती हो रही है. मैं तो बहुत पढ़ाई नहीं कर सका, लेकिन मैं अपने बच्चों को शिक्षित बनाना चाहता था.’

चंदा जुटाने के लिए शकील ने मुम्बई, दिल्ली और दुबई तक की यात्राएं की, जहां आजमगढ़ और आसपास के इलाकों के लोग आजीविका कमाने के लिए अक्सर जाते रहते हैं.

नाव दुर्घटना में जीवित बचे नईम अख्तर ने स्मृतियों को ताजा करते हुए कहा, ‘मैं इसे भूल नहीं सकता. वह दर्दनाक क्षण जीवनभर मुझे याद रहेगा. जब भी मैं उस रास्ते से गुजरता हूं, मेरे पैर भय से कांप उठते हैं और सैफुल्ला का चेहरा अचानक मेरी आंखों के सामने आ जाता है.’

ऐसे में शकील के लिए स्थानीय लोगों के मुह से दुआ ही निकलती है.

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