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पर्यावरण के चितेरे हैं गोविंद सिंह

एक हजार पेड़ों की कल्पना करते ही बेहद खूबसूरत प्राकृतिक नजारा आंखों के सामने घूम जाता है. कल्पना नहीं, यह हकीकत थी लेकिन अफसोस यह कि इन पेड़ों पर एक नंबर खुदा था जो इनके बारी-बारी से कटने का संकेत था. कुछ पेड़ कट गए और कुछ दूसरी जगह लगा दिए गए, लेकिन उन्होंने भी बाद में दम तोड़ दिया. वहां एक रग्बी स्टेडियम बना. लेकिन पेड़ क्या कटे, गोविंद सिंह के सीने पर कुल्हाड़ी चल गई.

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एक हजार पेड़ों की कल्पना करते ही बेहद खूबसूरत प्राकृतिक नजारा आंखों के सामने घूम जाता है. कल्पना नहीं, यह हकीकत थी लेकिन अफसोस यह कि इन पेड़ों पर एक नंबर खुदा था जो इनके बारी-बारी से कटने का संकेत था. कुछ पेड़ कट गए और कुछ दूसरी जगह लगा दिए गए, लेकिन उन्होंने भी बाद में दम तोड़ दिया. वहां एक रग्बी स्टेडियम बना. लेकिन पेड़ क्या कटे, गोविंद सिंह के सीने पर कुल्हाड़ी चल गई.

खामोशी के साथ हुए इस पर्यावरण हादसे ने सिंह को पेड़ों को बचाने की कवायद में लगा दिया. 26 वर्षीय सिंह ने मार्च, 2007 में अपने दोस्तों के साथ मिलकर दिल्ली ग्रीन्स नाम का एक ब्लॉग बनाया. पर्यावरण संरक्षण की अपनी पहल के तहत वे लोगों के साथ पॉलिथीन के प्रयोग, पेड़ों के इर्द-गिर्द 436 की जगह न छोड़ने और पत्ते जलाने जैसे गैर-कानूनी कार्यों को बंद करने के लिए जबरदस्ती नहीं करते हैं, बल्कि  उन्हें इनसे जुड़ी जानकारी देकर लोगों को जागरूक बनाते हैं.

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कंधे पर लैपटॉप टांगे और मेट्रो की सवारी को तवज्‍जो देने वाले सिंह अन्य संगठनों से आर्थिक सहायता से दूर ही रहते हैं. उनके इन्हीं प्रयासों को लेकर राष्ट्रीय राजधानी ह्नेत्र के पर्यावरण विभाग के सीनियर साइंटिफिक अफसर और दिल्ली के सभी इको क्लब के प्रमुख डॉ. बी.सी. साबत कहते हैं, ''सिंह स्कूली बच्चों में जागरूकता फैला रहे हैं और इसके सकारात्मक नतीजे मिल रहे हैं.'' {mospagebreak}

ब्लॉग के जरिए ही विक्रांत कुमार ने कदम आगे बढ़ाते हुए सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के महत्व को पर्यावरण के संदर्भ में बखूबी समझ. विक्रांत अब आरटीआइ के जरिए दिल्ली के पेड़ों को बचाने में जुटे हैं. ब्लॉग ने दिल्ली के पेड़ों को बचाने के प्रयासों में जुड़ीं सुजाता चटर्जी और पद्मावती द्विवेदी सरीखे लोगों को एक-दूसरे से जोड़ा है.

सिंह 2008 और 2010 में जलवायु पर दिल्ली यूथ समिट का आयोजन कर चुके हैं. सिंह पर्यावरण बचाने की अपनी नई पहल अर्बन इको टूरिज्म को बखूबी अंजाम दे रहे हैं. इसके तहत वे डीटीसी की बस में 50 लोगों को दिल्ली के पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र से जुड़े स्थान घुमाते हैं. इसमें यमुना नदी, अग्रसेन की बावली, भूली भटियारी पार्क और दिल्ली की सीमा पर स्थित कूड़े के ढेर सरीखे स्थान दिखाकर हकीकत से रू-ब-रू कराया जाता है.

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दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्बन इकोलॉजी और सस्टेनेबल डेवलपमेंट में पीएचडी कर रहे सिंह हवाई यात्राओं से बचते हैं. सिंह बताते हैं, ''पेड़ों के कटने से दिल्ली विश्वविद्यालय में मोरों की संख्या में घटी है और हॉर्नबिल सरीखे कई पह्नी गायब हो गए हैं.'' सिंह पर्यावरण संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने के अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल भी रहे हैं. वे अल गोर के क्लाइमेट प्रोजेक्ट के दिल्ली में ह्ढेजेंटर हैं और उनकी योजना आने वाले समय में अपने सरोकारों को और बढ़ाने की है.

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