संसदीय लोकतंत्र और संविधान का महत्व कम करने के सरकार के आरोपों का सामना कर रहे गांधीवादी अन्ना हज़ारे पक्ष ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ही सवाल किया कि उनके जैसा ‘ईमानदार’ नेता प्रस्तावित लोकपाल के दायरे में आने को लेकर क्यों ‘डर’ रहा है.
लोकपाल मसौदा संयुक्त समिति की अगली बैठक होने से दो दिन पहले हज़ारे पक्ष ने सिंह को लिखे पत्र में कहा कि प्रधानमंत्री पद को लोकपाल की जांच के दायरे से बाहर रखना प्रतिकूल कदम होगा. हज़ारे पक्ष ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के उन आरोपों पर भी ऐतराज जताया, जिसमें कहा गया है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जैसे अभियान लोकतंत्र का महत्व कम कर रहे हैं. हज़ारे पक्ष ने कहा कि मुखर्जी का बयान ‘लोकतंत्र की समझ ठीक तरह से नहीं होने और सत्ता के दंभ को दर्शाता है.’
हज़ारे पक्ष ने सिंह से कहा कि आप इस देश के अब तक के सबसे ईमानदार प्रधानमंत्रियों में से एक हैं. विडंबना है कि सरकार लोकपाल की जांच के दायरे से प्रधानमंत्री को बाहर रखना चाहती है. आपके जैसा ईमानदार प्रधानमंत्री स्वतंत्र लोकपाल की जांच के दायरे में आने को लेकर क्यों डर रहा है. हज़ारे, शांति भूषण, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े द्वारा लिखे इस पत्र में कहा गया, ‘प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना प्रतिकूल कदम होगा. सरकार को प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के लिये संविधान और भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संशोधन करना होगा. उसे प्रधानमंत्री को वैसी ही छूट देनी होगी जैसी राष्ट्रपति को मिलती है.’
हज़ारे पक्ष ने कहा, ‘सरकार आखिर ऐसा क्यों करना चाहती है. हम सिर्फ यही चाहते हैं कि प्रधानमंत्री पद को उनके अधीन आने वाली सीबीआई जैसी एजेंसी की जांच के बजाय स्वतंत्र लोकपाल की जांच के दायरे में लाया जाये.’ पत्र में यह भी जिक्र किया गया कि वर्ष 2001 में लोकपाल के मुद्दे पर गठित संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष के तौर पर मुखर्जी ने सिफारिश की थी कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिये और इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रजामंदी भी जता दी थी.
पत्र में कहा गया, ‘दिलचस्प रूप से, लोकपाल मसौदा समिति में शामिल सरकार के पांच में से तीन मंत्री पूर्व में कह चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे में लाने के पक्ष में हैं.’ हज़ारे पक्ष ने प्रधानमंत्री से कहा, ‘जनवरी 2011 में भी वीरप्पा मोइली ने बतौर विधि मंत्री उनके द्वारा तैयार किये गये लोकपाल विधेयक के मसौदे में कहा था कि प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे में रखा जाना चाहिये. इस पर मार्च 2011 में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने भी रजामंदी जतायी.’
लोकपाल मसौदा समिति में शामिल सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि फिर आखिर मार्च 2011 के बाद ऐसा क्या हो गया कि सरकार अचानक अपने रुख से पलट गयी. रुख में अचानक आया यह बदलाव ‘संदेहास्पद’ है. आखिर ऐसी कौन सी बात है कि सरकार प्रधानमंत्री पद को लोकपाल जैसे स्वतंत्र जांच निकाय से बचाकर रखना चाहती है. पत्र में कहा गया, ‘हमें याद है कि अतीत में आप खुद लोकपाल के दायरे में आने की पेशकश रख चुके हैं, लेकिन आपके मंत्री क्यों इस मुद्दे का विरोध कर रहे हैं? क्या सरकार के भीतर ही संवाद की कमी है?’
इस पत्र को सार्वजनिक करने के बाद केजरीवाल ने कहा, ‘लोकपाल मसौदा समिति में शामिल सरकार के तीन मंत्री प्रधानमंत्री पद को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने पर पूर्व में सहमत थे, लेकिन अब तीनों मंत्रियों ने अचानक रुख बदल लिया. हम जानना चाहते हैं कि ऐसा क्या हुआ कि अब सरकार प्रधानमंत्री कार्यालय को स्वतंत्र जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती.’ पत्र में कहा गया कि सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में नहीं लाने के लिये यह दलील दे रही है कि अगर ऐसा किया गया तो प्रधानमंत्री काम करने के काबिल नहीं रह जायेंगे.
हज़ारे पक्ष ने कहा कि सिंह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव के साथ काम कर चुके हैं. जब बोफोर्स मामले की जांच हुई तो क्या गांधी काम करने के काबिल नहीं रह गये थे और जब झारखंड मुक्ति मोर्चा मामले में राव के खिलाफ जांच हुई तो क्या उनके पद की कार्यप्रणाली पर असर पड़ा था. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि प्रधानमंत्री के पास सुरक्षा संबंधी गोपनीय जानकारी होती है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के मद्देनजर अगर मधु कोडा, ए. राजा और रेड्डी बंधुओं जैसे नेता प्रधानमंत्री बन जायें और प्रधानमंत्री पद सख्त लोकपाल कानून के दायरे में नहीं हो तो देश की सुरक्षा पर इसका असर पड़ सकता है.