बिहार की राजनीति के लिए यह ऐतिहासिक क्षण है. बिहार में किसी भी मुख्यमंत्री, पार्टी या गठबंधन की यह अब तक की सबसे बड़ी जीत है. यह जीत लालू के 1995 की जीत या फिर कांग्रेस की दस साल पहले 1985 की जीत से भी बड़ी है.
लेकिन यह जीत इस कारण से ऐतिहासिक नहीं है. यह ऐतिहासिक है क्योंकि पहली बार विकास के नाम एक स्पष्ट जनादेश मिला है. और यह कोई ऐसा वैसा विकास का एजेंडा नहीं है बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाला विकास है, जिसके लिए नीतीश पिछले पांच साल से काम कर रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि इस चुनाव में जातियता का सहारा नहीं लिया गया जैसा कई लोग समझ रहे हैं. और ना ही बिहार की राजनीति में जाति का महत्व कम होने जा रहा है. हां यह जरूर हुआ है कि इस चुनाव में विकास के मुद्दे ने जातिवाद को हाशिए पर डाल दिया.
इस चुनाव में लालू अपने जन्म स्थान, गोपालगंज में यादव बहुल क्षेत्रों और किशनगंज के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अपनी साख बचाने के लिए संघर्ष करते नजर आए, जिससे जाहिर हो गया कि उनका पुराना एम-वाई समीकरण का हिट फार्मूला अब किसी काम का नहीं रह गया है.
नीतीश ने अत्यंत पिछड़ा वर्गों को लेकर एक अलग सामाजिक रास्ता बनाया, जिसमें पसमंदा मुस्लिम और महादलित शामिल हैं. उन्होंने एक नया वर्ग बनाया, औरतों का. बिहार चुनाव में पहली बार औरतों ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया. हम भूल जाते हैं कि केरल में नहीं बिहार में पहली बार औरतों को पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण मिला है.
जीत को लेकर विनम्र, नीतीश अपने लक्ष्य और प्राथमिकताओं को लेकर बहुत ही स्पष्ट हैं. नीतीश यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि जब 2015 में फिर से चुनाव हों तो वह जनता के सामने जाने से पहले बिहार को विकसित राज्य बना सकें.
लेकिन पप्पू यादव और मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे तत्वों को जेल में डालने से कहीं ज्यादा मुश्किल है राज्य में रोजगार के अवसरों को बढ़ाना और निवेश को आकर्षित करना. यहां तक की बराक ओबामा के लिए भी यह मुश्किल रास्ता है. हम नीतीश कुमार को इस मुश्किल काम के लिए बहुत शुभकामनाएं देते हैं, जिस पर आठ करोड़ बिहारियों को गर्व है.