मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी सात महीने पहले भारी उम्मीदों और ऊंचे लक्ष्यों के साथ देवबंदी मसलक की सर्वोच्च शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम बनाए गए थे. गुजरात के उदार और प्रगतिशील आलिम मौलाना वस्तानवी को वहां से जिस जबरिया तरीके से हटाया गया, वह जितना विस्मयकारी है उतना ही सनसनीखेज भी है. यहां के इस्लामिक हलकों के खास जानकारों को भी पूरा खेल समझ्ने में वक्त लगेगा. मौलाना वस्तानवी का इस पूरे विवाद और खुद को हटाए जाने के फैसले पर क्या कहना है यह जानने के लिए सुरेंद्र सिंघल ने उनकी दारुल उलूम से विदाई के फौरन बाद और फिर यूरोप के दौरे पर उनके लंदन पहुंचने पर उनसे लंबी बातचीत की. हर वक्त चेहरे पर खिली मुस्कान वाले मौलाना वस्तानवी ने बड़ी सादगी, विनम्रता और सलीके से अपना नजरिया पेश किया. पेश है उनसे की गई बातचीत के अंशः
जिस संस्था की मजलिसे-शूरा के आप पिछले 10 सालों से सदस्य हैं और जहां आपको मोहतमिम पद की जिम्मेदारी संभाले सात माह भी पूरे नहीं हुए थे वहां आखिर ऐसा क्या हो गया जो आपको जबरन हटा दिया गया?
मैं महाराष्ट्र के अक्कलकुआं में देश का सबसे बड़ा शिक्षण संस्थान जामिया-इस्लामिया इस्हातुल उलूम चलाता हूं. 8 दिसंबर, 2010 को दारुल उलूम के मोहतमिम मौलाना मुरगुबूर्रहमान का निधन हो जाने के बाद 10 जनवरी, 2011 को नए मोहतमिम की तैनाती के लिए देवबंद में बुलाई गई मजलिसे-शूरा की बैठक में एक महीने से कार्यवाहक मोहतमिम पद पर कार्यरत मुफ्ती अबुल कासिम की जगह मजलिसे-शूरा ने मुझे मोहतमिम चुना था. मैं इसके लिए न तो तैयार होकर आया था और न ही इस पद का इच्छुक था. लेकिन शूरा के सदस्यों की भावनाओं और अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए मैं नई जिम्मेदारी कबूल करने को तैयार हो गया. लेकिन मेरे सामने आए गुट को यह मंजूर नहीं हुआ. मैंने काम शुरू भी नहीं किया था कि मुझे हटाने की चालें चलनी शुरू हो गईं. तालीमी और सामाजिक क्षेत्र से जुड़ा होने की वजह मैं साजिशों को न सूंघ सका और न ही मैं उनकी काट जानता था. मैंने वहां टिकने और काम करने की कोशिश की लेकिन आखिरकार मुझे नापसंद करने वाले मेरे हरीफों ने मुझे वहां से जबरन हटा दिया.
आखिर इसके पीछे आप क्या वजह मानते हैं?
हर कोई जानता है देवबंद में एक खास लॉबी है जिसका मैं नाम नहीं लूंगा. वे इस संस्था को अपनी बपौती समझ्ते हैं. उनका वहां पर जबरदस्त वर्चस्व है. उनकी मर्जी के बगैर वहां पत्ता भी नहीं खड़क सकता. मेरे वहां बैठने से उन लोगों को अपने वजूद पर खतरा नजर आने लगा. मेरे सामने उन लोगों की चमक फीकी पड़ने लगी और देवबंद में भी उनके बजाए मेरा शोर सुनाई देने लगा, जो उन्हें गंवारा नहीं हुआ. उस लॉबी ने ही मुझे साजिश के तहत हटाने का काम किया है. दारुल उलूम में मेरी बतौर मोहतमिम तैनाती से लेकर हटाए जाने के पूरे वाकए से लोग पूरी तरह वाकिफ हैं. उसे यहां बताने की जरूरत नहीं है.
साजिश के पीछे कौन लोग थे?
वे ही जो मेरे हरीफ (मुखलिफ) थे, मैं उनका नाम नहीं लूंगा.
जांच समिति पर आपका एतराज क्या है?
मैंने सारे मामले शूरा में रखने के लिए 23 फरवरी को हंगामी बैठक बुलाई थी. उसमें मेरे प्रस्ताव पर शूरा की तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाई गई थी. जांच के तीन मुद्दे तय किए गए थे. एक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देने संबंधी मीडिया में छपे मेरे कथित बयान और मुझ पर मूर्तियां बांटने के आरोपों की सचाई की जांच; मदरसा छात्रों द्वारा मोहतमिम को हटाने को लेकर चलाई गई मुहिम और छात्रों को भड़काने वाले उस्तादों का पता लगाना. 23 जुलाई को शूरा की बैठक में पेश की गई जांच रिपोर्ट पूरी तरह से अधूरी थी. उसमें केवल मुझ्से जुड़े एक मुद्दे की ही जांच की गई और बाकी दोनों सवालों को छोड़ दिया गया. इस पर मेरा और दूसरे साथियों का एतराज था. अधूरी जांच रिपोर्ट की वजह से मैं अपने ऐलान के मुताबिक इस्तीफा देने को तैयार नहीं था. मैंने बैठक में कहा भी कि वे दूसरे दो मुद्दों की भी जांच कराएं और उसके नतीजे सामने आने दें तो उसके बाद मैं यह पद छोड़ दूंगा. पर शूरा के ज्यादातर सदस्य इसके लिए राजी न हुए और इसी वजह से मैं इस्तीफा नहीं देने पर अड़ा रहा.
क्या आप आपको हटाने में शूरा की अपनाई प्रक्रिया से सहमत हैं?
शूरा की एक विशेष लॉबी से जुड़े सदस्यों ने अपने आकाओं के मुझे हटाने के 'क्म को पूरा करने की खातिर दारुल उलूम के दस्तूर (आईन) यानी संविधान को बालाए ताक पर रखकर मुझे मनमाने ढंग से हटाने का काम किया. हमारा साथ देने वाले चार विद्वान सदस्यों-मुफ्ती इस्माइल कासमी, मौलाना बदरुद्दीन अजमल, मौलाना याकूब मद्रासी और दारुल उलूम के सदर मुदर्रिस मौलाना सईद अहमद पालनपुरी ने इस पर ऐतराज जताया और मुझे हटाने के खिलाफ वोट किया. लेकिन मैंने दारुल उलूम की गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने की खातिर शूरा के इस फैसले को भी कबूल कर लिया.
आप उदार इस्लामिक विद्वान और शिक्षाविद् हैं. ऐसी सूरत में अब आपका क्या करने का इरादा है?
मैंने कोर्ट में न जाने का फैसला किया है. मैं इस मुद्दे को लेकर जनता के बीच भी नहीं जाऊंगा. मेरा अपना बड़ा मदरसा है. वहां मेरे लिए बड़ी भूमिका है. मैं फिर से अपने उस काम को देखूंगा और आगे बढ़ाऊंगा. मैं नहीं मानता कि दारुल उलूम जैसी मुस्लिमों की बड़ी संस्था को लेकर किसी तरह का कोई विवाद पैदा किया जाए. मैं दारुल उलूम की शूरा का सदस्य बना रहूंगा और एक सदस्य के तौर पर पहले की तरह इस संस्था की निष्ठापूर्वक सेवा करता रहूंगा.
क्या आप सोचते हैं कि आज देवबंद में किसी उदार मुस्लिम विद्वान और प्रशासक के लिए कोई जगह नहीं है?
जो सुलूक मेरे साथ हुआ है, उससे यह स्पष्ट है कि एक खास लॉबी की मर्जी के बिना वहां किसी के लिए कोई जगह नहीं है. मुझे तो वहां काम करने का मौका ही नहीं दिया गया और बिना कोई गलती किए सजा दे दी गई. ऐसा किया जाना न्याय, नैतिकता, मजहब और तर्क किसी भी लिहाज से सही नहीं है पर ऐसा किया गया और यह एक सर्वोच्च दीनी संस्था के उलमाए दीन की तरफ से हुआ है जिसका मुझे बेहद अफसोस है.
क्या आप समझ्ते हैं कि आप रूढ़िवादी और बदलाव विरोधियों की साजिशों का शिकार हुए हैं?
मैं ऐसा नहीं मानता कि दारुल उलूम पर रूढ़िवादियों या कट्टरपंथियों का कब्जा है. मैं कह चुका हूं कि दारुल उलूम पर एक विशेष गुट का कब्जा है जहां उनकी मनमानी चलती है. मैं उसी गुट की साजिशों का, जो शुरू से मेरे सामने अड़ा हुआ था, शिकार हुआ हूं.
नरेंद्र मोदी और गुजरात को लेकर आपने अपने पहले के जो बयान बदले थे, अब बदली हुई परिस्थितियों में उस बारे में आप क्या सोचते हैं?
मैंने नरेंद्र मोदी और गुजरात के विकास को लेकर सूरत (गुजरात) में एक अंग्रेजी अखबार के नुमाइंदे को जो इंटरव्यू दिया था, उस पर मैं हमेशा कायम रहा. दरअसल, जिन बातों का मैंने खंडन किया वे मेरे उस इंटरव्यू को लेकर उर्दू प्रेस के एक सेक्शन द्वारा तोड़-मरोड़कर और एक गुट विशेष के इशारे पर छापी गई थी. मैंने मीडिया में कई बार जोर देकर कहा है कि शुरू में उस अखबार के नुमाइंदे से मैंने जो कुछ बोला था उसने हू-ब-हू वही छापा था. लेकिन दुर्भाग्य से मेरी कही गई बातों को अन्यथा लिया गया. मैं सियासी हलके का आदमी नहीं हूं, शिक्षा क्षेत्र से हूं. मुझे सियासी तकाजों के मायने मालूम नहीं हैं. मैं अपनी बातों से कभी फिरा नहीं हूं.
क्या आप अभी भी अपने मूल बयान पर कायम हैं?
मैं आपके इस सवाल का जवाब दे चुका हूं.
क्या आप मानते हैं कि देवबंद (दारुल उलूम) का प्रशासन कट्टरपंथी ताकतों ने हथिया लिया है?
उस पर कट्टरपंथियों का नहीं, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, एक खास गुट (लॉबी) का कब्जा और वर्चस्व है.
एक उदार इस्लामिक विद्वान और शिक्षाविद् होने के नाते अब आपसी क्या भूमिका रहने वाली है.
मैं शिक्षा के क्षेत्र का आदमी हूं. मेरे पास दीनी, आधुनिक और तकनीकी, चिकित्सा, इंजीनियरिंग के बड़े शिक्षण संस्थानों की लंबी श्रृंखला है. मैं इस काम को और बढ़ाने में लगूंगा. मुसलमानों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊंचाइयों तक पहुंचाना मेरा पहला मिशन है.