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महंगाई से आम आदमी हुआ बेदम

खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर क्या काबू पा लिया गया है? नहीं. आंकड़े भ्रामक हैं. मई में सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 7.47 प्रतिशत है, जो कि पिछले 18 महीनों में सबसे कम है.

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खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर क्या काबू पा लिया गया है? नहीं. आंकड़े भ्रामक हैं. मई में सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 7.47 प्रतिशत है, जो कि पिछले 18 महीनों में सबसे कम है. पिछले साल इसी अवधि में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 20 प्रतिशत थी.

महंगाई दर भले ही कम हुई हो लेकिन जरूरी खाद्य पदार्थों की कीमतें अब भी 7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही हैं. फलों की कीमतें 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही हैं, जिससे आम आदमी के लिए फलों का स्वाद लेना मुश्किल होता जा रहा है.

सरकार के लिए इससे भी ज्‍यादा चिंता की बात यह है कि महंगाई सिर्फ खाद्य वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रह गई है. पिछले हफ्ते वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा, ''हालांकि खाद्य पदार्थों की कीमतें घट रही हैं लेकिन, 'कोर' महंगाई, चिंता का बात बना हुआ है.''

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'कोर' महंगाई शब्दावली का इस्तेमाल खाद्य वस्तुओं और ईंधन से इतर अन्य वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी को संबोधित करने के लिए किया जाता है, मुख्य रूप से निर्मित वस्तुओं के लिए. अप्रैल में थोक बिक्री मूल्य सूचकांक 8.66 फीसदी था, जो कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर से कहीं ऊपर था. यह 4 प्रतिशत की सामान्य दर से बहुत ज्‍यादा था.

यह लक्षण अच्छा नहीं है. 3 मई को क्रेडिट नीति पर अपने बयान में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआइ) के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि सितंबर तक महंगाई ऊंची बनी रहेगी. उन्होंने अनुमान लगाया कि मार्च, 2012 तक महंगाई की दर घटकर 6 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी.

इस पूर्वानुमान में भी उन्होंने, उर्ध्वगामी रुख की संभावना जोड़ दी. सुब्बाराव की इस भविष्यवाणी से सहमति जताते हुए सेंटर फॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकोनॉमी के सीईओ महेश व्यास कहते हैं, ''मैं समझ्ता हूं कि हमारे सामने अधिक वृद्धि और अधिक महंगाई का दौर आने वाला है.'' अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय कहते हैं, ''महंगाई जाने वाली नहीं है. सभी तीन घटक- खाद्य, निर्माण और सामग्री- बढ़ रहे हैं.''

वित्त मंत्री किसी तरह की भविष्यवाणी नहीं करना चाहते हैं. 21 मई को इंडियन बैंक एसोसिएशन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ''महंगाई के दबावों का कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है और न ही उनकी कोई निश्चित दिशा बताई जा सकती है. 2008 की तरह, जब तेल और कच्चे माल की कीमतें एकदम बढ़ने के बाद तेजी से नीचे आ गई थीं, आज भी कच्चे माल की कीमतों पर कोई अंदाज नहीं लगाया जा सकता है.

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कोई भी नहीं बता सकता कि वे कौन-सा रुख अख्तियार करेंगी.'' सरकार ने लगातार बढ़ती महंगाई के कई कारण बताए हैं. इन कारणों में वैश्विक कारकों को जिम्मेदार ठहराना सबसे ताजा कारण है. मुखर्जी ने कहा, ''जब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अनिश्चितता हो, खासकर उन वस्तुओं पर, जिन्हें हमें आयात करना पड़ता है, तो जाहिर है कि महंगाई पर असर पड़ेगा.'' कुछ महीने पहले तक महंगाई के बारे में सबसे पसंदीदा तर्क यह दिया जाता था कि ऊंची विकास दर पाने के लिए हमें महंगाई की कीमत चुकानी ही पड़ेगी.

जनवरी में खाद्य वस्तुओं की महंगाई जब अपने चरम पर थी तो योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा था, ''हां, यह सही है कि दूध और सब्जियों की कीमतें बहुत ज्‍यादा हैं. लेकिन यह आर्थिक समृद्धि और क्रयशक्ति का संकव्त है.'' मजे की बात है कि सरकार ने महंगाई में वृद्धि का श्रेय लेने की कोशिश की है. उसका तर्क है कि नरेगा जैसी सार्वजनिक खर्च की योजनाओं के कारण गांवों में लोगों की आय बढ़ी है, जिसके कारण खाद्य वस्तुओं की मांग में इजाफा हुआ है.

कीमतों को प्रभावित करने में अंतरराष्ट्रीय कारकों को जिम्मेदार ठहराने की मुखर्जी की बात में दम है. पिछले 12 महीनों में दुनिया भर में कुछ मुख्य वस्तुओं की कीमतें आसमान पर पहुंच गई हैं, क्योंकि आर्थिक दशा में सुधार होने से विकसित और विकासशील, दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं ने आर्थिक संकट के दौर को पीछे छोड़ते हुए तेजी से रफ्तार पकड़ी है. भारत पर सबसे गंभीर असर कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि से पड़ा है.

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पिछले 12 महीनों में इसकी कीमतों में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है. मिस्त्र और लीबिया में राजनैतिक संकट के बाद इस समय कच्चे तेल की कीमत प्रति बैरेल 100 डॉलर के आसपास मंडरा रही है.

15 मई को तेल की माकर्व्टिंग कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर 5 रु. की बढ़ोतरी की  घोषणा कर दी. डीजल की कीमत भी जल्दी ही 2 रु. प्रति लीटर बढ़ने की संभावना है. इस बढ़ोतरी से दूसरी वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ेंगी. देबरॉय कहते हैं, ''कच्चे माल की कीमतों में इजाफ से उत्पादकों के लिए लागत बढ़ जाएगी, जिसके कारण महंगाई और बढ़ेगी.''

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि महंगाई के कारणों का सिर्फ एक हिस्सा हो सकती है. ये कीमतें तो हर देश के लिए एक ही रहेंगी. अप्रैल में, जब भारत में महंगाई दर 8.66 फीसदी थी, तब तेजी से बढ़ने वाली दूसरी अर्थव्यवस्थाओं में महंगाई की दर अपेक्षाकृत बहुत कम थी. चीन में यह दर महज 5.3 प्रतिशत, ब्राजील में 6.5 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका में 4.1 प्रतिशत थी.

घरेलू अर्थव्यवस्था में आपूर्ति के मामले में कुछ वाजिब समस्याएं हैं, लेकिन महंगाई पर लगाम लगाने के मामले में सरकार की रणनीति सिर्फ मांग के पक्ष पर केंद्रित लगती है. आरबीआइ ने पिछले 12 महीनों में अपनी पॉलिसी दरें नौ बार बढ़ाई हैं. देबरॉय कहते हैं, ''मौद्रिक नीति सही उपाय नहीं है.'' महेश व्यास भी कहते हैं, ''मौद्रिक नीति कच्चे तेल या कोयले की ऊंची कीमतों के बारे में कुछ नहीं कर सकती. ब्याज दरों के जरिए असर डालने के लिए आरबीआइ को नाटकीय बढ़ोतरी करनी होगी, जो बुद्धिमानी नहीं है.''

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मौद्रिक नीति की दरों में लगातार बढ़ोतरी से पहले ही विकास दर पर असर पड़ने लगा है, क्योंकि इससे निवेश और खपत के लिए कर्ज ज्‍यादा महंगा हो गया है. वित्त मंत्रालय ने इस वित्तीय वर्ष के लिए पहले ही 9 फीसदी की वृद्धि दर को खारिज कर दिया है.

आपूर्ति के मामले में सरकार ने कृषि की मुख्य उपजों के निर्यात और वादा कारोबार पर प्रतिबंध लगाने का उपाय अपनाया है. निर्यात पर प्रतिबंध से घरेलू आपूर्ति में कुछ समय के लिए इजाफा हो सकता है लेकिन इससे किसानों को घाटा होता है क्योंकि उन्हें घरेलू बाजार में कम कीमत मिलती है. और इस वजह से उस फसल को उगाने में उन्हें कम फायदा मिलता है. इस उपाय से अनाज का नुक्सान भी होता है.

इस समय गेहूं का भंडार जरूरत से ज्‍यादा बढ़ गया है, जबकि निर्यात पर पाबंदी है. वायदा कारोबार पर पाबंदी से कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ता, लेकिन इससे किसानों के हाथ से भविष्य की योजना बनाने का मौका निकल गया है. इसलिए किसानों के हाथ से अवसर छीन लेने से ये दोनों उपाय लंबी अवधि में मददगार होने की जगह हानिकारक साबित हो सकते हैं. सरकार ने कृषि, खासकर सिंचाई के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के लिए कुछ खास कदम नहीं उठाए हैं.

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सिंचाई से उत्पादन बढ़ाने में निश्चित रूप से मदद मिलेगी. सरकार ने थोक बिक्री और खुदरा कीमतों के बीच अंतर को कम करने की दिशा में भी कुछ नहीं किया है. खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के मामले में भी कुछ नहीं हुआ है. सरकार ने कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून में संशोधन के लिए भी कोई कदम नहीं उठाया है, जिससे बाजार में नए कारोबारियों को प्रवेश नहीं मिल पाता और कंपनियां एकमत होकर अपनी मर्जी से कीमतें तय कर देती हैं.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में, जिससे नुक्सान की संभावना सबसे कम हो जाती है और जिसके जरिए सबसे गरीब लोगों को मदद पहुंचाई जा सकती है, शायद ही कभी सुधार किया गया है.

पीडीएस में सुधार के मामले पर केंद्र ने अपनी जिम्मेदारी राज्‍यों पर डाल दी है. मुखर्जी कहते हैं, ''अगर वे (राज्‍य) प्रभावी ढंग से पीडीएस लागू करें तो हम लोगों को महंगाई की मार से बचा सकते हैं.'' मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह उन उपायों की सूची तैयार कर रहा है, जिनके जरिए सरकार महंगाई पर काबू पा सकती है. इस समस्या के समाधान के लिए नौकरशाही की विशेषज्ञता से ज्‍यादा राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी.

किसी खास मौके पर महंगाई उतना ही भविष्य की उम्मीदों का खेल है जितना कि मांग और आपूर्ति के समीकरण का. अगर सरकार आपूर्ति की कमी को पूरा करने के प्रति गंभीर रुख दिखाती है तो बाजार के खिलाड़ी कीमतों की उम्मीदों को नीचे लाना शुरू कर देंगे. एक्सिस बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री सौगत भट्टाचार्य के मुताबिक, ''संरचनागत समस्याएं दूर होने के बाद महंगाई ज्‍यादा समय तक नहीं रहेगी.''

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फिलहाल महंगाई से कोई भी नहीं बचा है. आम आदमी को इसकी मार सहनी ही पड़ेगी और उसे अच्छे मानसून के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी होगी. देश के सबसे गरीब राज्‍यों में से दो राज्‍य झारखंड और छत्तीसगढ़ (देखें बॉक्स) दिखाते हैं कि आम आदमी किस तरह अपनी जरूरतों को पूरा करने में परेशान है. हालांकि सरकार के पास इसके जवाब तो बहुत हैं लेकिन समाधान नहीं.

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