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वोटरों के फरमान पर नतमस्‍तक नेता: अजय कुमार

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की और तमिलनाडु में एआईएडीएमके की धमाकेदार जीत इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र तमाम असंगतियों को पाटकर एक जैसा बना देती है.

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पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की और तमिलनाडु में एआईएडीएमके की धमाकेदार जीत इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र तमाम असंगतियों को पाटकर एक जैसा बना देती है. पिछले 34 साल के इतिहास में किसी भी वाममोर्चा नेता ने सत्ताधारी गठबंधन की ऐसी हार की कल्‍पना तक नहीं की होगी, जैसी हार आज उन्‍हें देखनी पड़ रही है. 'परिवर्तन' अब महज नारा नहीं है. यह पश्चिम बंगाल के युवा और उस मध्‍यवर्ग के लिए अब 'आदर्श वाक्‍य' की तरह है, जो कभी वामपंथी विचारधार का रीढ़ हुआ करता था.

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आज जिस तरह के परिणाम आए, उसकी सुगबुगाहट करीब 3 साल पहले से ही जगजाहिर हो चुकी थी. लेकिन हैरत की बात तो यह है कि न तो मुख्‍यमंत्री कार्यालय और न ही सीपीएम मुख्‍यालय सूनामी की इन तरंगों को भांप सका. सीपीएम पोलित ब्‍यूरो के सदस्‍य खामख्‍याली के ऊंचे मीनारों से जनसमूह को निहारने में व्‍यस्‍त रहे. वे सामजिक परिवर्तन के उन गुमानों में ही खोए रहे, जिसकी अलख 19वीं शताब्‍दी में कार्ल मार्क्‍स और 1940 के दशक की शुरुआत में माओ ने जगाई थी.

प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, बिमान बोस, मोहम्‍मद सलीम जैसे नेता टेलीविजन स्‍टूडिया में बैठ सकते हैं, गरीबों और पददलितों को लेकर लंबे-चौड़े व्‍याख्‍यान दे सकते हैं. लेकिन इन लोगों ने इस बात का रत्ती भर भी प्रयास नहीं किया कि जो ये जनता के बीच बोलते हैं, उसे अमलीजामा पहनाया जाए. क्‍या आज सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात किसी समर्पित पार्टी कैडर का सामना कर सकने में समर्थ हैं? क्‍या ये परमाणु सौदे पर यूपीए से समर्थन वापस लेने के मसले पर सफाई पेश कर सकते हैं, जिसने एक तरह से यूपीए सरकार को मध्‍यावधि चुनाव की ओर धकेल ही दिया था.

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तृणमूल कांग्रेस की अभूतपूर्व सफलता पूरी तरह से सिर्फ एक महिला-ममता बनर्जी के करिश्‍मा का नतीजा का है. यह उस महिला के संघर्ष का का नतीजा है, जिसने 'राइटर्स बिल्डिंग' में तब तक दाखिल न होने का संकल्‍प लिया था, जब तक वे मुख्‍यमंत्री न बन जाएं. 19 साल पहले तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री ज्‍योति बसु के चेंबर के सामने ममता बनर्जी एक बलात्‍कार पीडि़त महिला के लिए न्‍याय की फरियाद लेकर गई थीं. तब ज्‍योति बसु ने उनकी उपेक्षा तो की ही, साथ ही उन्‍हें धरने से भी हटा दिया था. अब ममता बनर्जी राइटर्स बिल्डिंग में फिर से दाखिल हो रही हैं, मुख्‍यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए. जब कृष्‍ण को द्रौपदी के चीरहरण के बारे में जानकारी मिली, तो उन्‍होंने कौरवों को चेताया था- ''किसी नारी के स्‍वाभिमान को कदापि ठेस मत पहुंचाओ, क्‍योंकि उसके प्रतिशोध की कोई सीमा नहीं रह जाएगी.'' अब ममता इस बात की जीती-जागती मिसाल बन गई हैं.

जयललिता की कहानी भी बहुत-कुछ ऐसी ही है. कई साल के उपेक्षित और सत्तारहित जीवन के बाद आज वे फिर से संभली नजर आ रही हैं. उनकी पार्टी को दो-तिहाई से ज्‍यादा वोट मिल रहे हैं और करुणानिधि की पार्टी की बुरी तरह पराजय हुई है. तमिलनाडु लंबे समय से राजनीतिक बदले के किस्‍सों का गवाह रहा है. क्‍या हम कभी यह भूल सकते हैं कि किस तरह करुणानिधि को पुलिस ने रिश्‍वत के आरोप में घर से बाहर खींच लाई थी. यह मानना भी गलत होगा कि पिछले कुछ सालों में जयललिता किसी कम तिरस्‍कार की शिकार हुई हैं. इससे कोई भी आसानी से यह अंदाजा लगा सकता है कि आने वाले दिनों में किस तरह की बदले की राजनीति देखने को मिल सकती है. अब अम्‍मा के पास पूर्ण बहुमत है.

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कांग्रेस के लिए असम की उपलब्धि पूर्ववत् ही रही, जिसकी प्रत्‍याशा हर किसी को थी. केरल में यूपीएफ को सत्ता मिलना भी प्रत्‍याशित ही था. पश्चिम बंगाल ओर तमिलनाडु के नतीजे ऐसे हैं, जो केंद्र ही राजनीति पर अपना असर छोड़ेंगे.

पश्चिम बंगाल में सरकार से जनता की आशा अपनी पराकाष्‍ठा पर होगी. अब पश्चिम बंगाल का भविष्‍य और यहां के निवासियों की नियति पूरी तरह से इस बात पर निर्भर है कि ममता बनर्जी कैसा प्रदर्शन करती हैं. जहां तक जनता की बात है, वह ममता बनर्जी में अपना यकीन वोट के जरिए जता चुकी है. अब ममता बनर्जी को यह साबित करना होगा कि वे एक योग्‍य ओर दृढ़प्रतिज्ञ प्रशासक हैं. ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब आने वाले दिनों में ही मिल पाएंगे-क्‍या बेरोजगार युवकों को रोजगार दिए जाएंगे, जैसा कि वादा किया गया था? क्‍या किसान अपनी उपज बढ़ाने के लिए अच्‍छी सिंचाई सुविधा पा सकेंगे? क्‍या राज्‍य में निवेश की रफ्तार जोर पकड़ सकेगी? क्‍या जनता ममता बनर्जी में भरोसा बरकरार रख सकेगी, जो कि रेल मंत्री के रूप में कई अहम मौकों पर अनुपस्थित रहकर जनता की आंखों में खटकती रही हैं.

जयललिता के सामने सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि क्‍या वे खुद को एक ईमानदार प्रशासक साबित कर सकेंगी. क्‍या जयललिता बदले की राजनीति को त्‍यागकर विकास पर ध्‍यान केंद्रित कर सकेंगी? यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब खुद जयललिता ही दे सकती हैं.

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यहां एक तथ्‍य को कतई नदरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि भारत सचमुच एक लोकतांत्रिक देश है. भारतीय वोटर अशिक्षित, उपेक्षित या असहाय हो सकता है, पर बेजुबान नहीं हो सकता है....और जब वोटर बोलता है, तो नेताओं की बोलती भी बंद हो जाती है. इस बात को करुणानिधि, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, प्रफुल्‍ल कुमार महंत और लेफ्ट फ्रंट के नेताओं से बेहतर और कौन महसूस कर सकता है?

(अजय कुमार आजतक चैनल में एग्‍जीक्‍यूटिव प्रोड्यूसर हैं.)

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