scorecardresearch
 

आजम के मान-मनौवल में जुटे मुलायम

मुस्लिम वोटों की खातिर आजम खां के पार्टी में लौटने की सपा को कई माह से उम्मीद मगर यह बागी नेता लगातार इंतजार करा रहा.

Advertisement
X

तकरीबन तीन महीने से समाजवादी पार्टी (सपा) का नेतृत्व बागी नेता मोहम्मद आजम खां को वापस पार्टी में लाने के लिए उनकी आरती उतार रहा है, मगर खां हैं कि मानते ही नहीं. वे अपनी सारी शर्तें मनवाने के लिए पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को ब्लैकमेल कर रहे हैं.

Advertisement

सपा की राजनैतिक गतिविधियां लगभग ठप हैं और पार्टी के नेता तथा मुलायम की अगुआई में पूरा यादव परिवार लगातार गच्चा दे रहे आजम खां को मनाने में जुटा है. उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते मई 2009 में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. हालत यह है कि 22 नवंबर को मुलायम के 72वें जन्मदिन पर जब खुद मुलायम और उनके समर्थकों के ऐलान के मुताबिक उम्मीद की जा रही थी कि आजम खां पार्टी में लौट आएंगे, ऐन मौके पर उन्होंने इरादा टाल दिया.

उस दिन मुलायम दिल्ली में ही रुककर आजम खां के पार्टी में लौटने का इंतजार करते रहे. मुस्लिम नेता को खुश करने के लिए मुलायम इस हद तक चले गए कि उन्होंने विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से अपने छोटे भाई शिवपाल यादव को हटाकर यह जिम्मेदारी उन्हें देने की पेशकश भी कर दी, मगर आजम खां ने अभी 'देखो और इंतजार करो' का संकेत दिया है. मुलायम ने मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए 2012 के विधानसभा चुनावों में एक तरह से उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने का मन बनाया है. {mospagebreak}

Advertisement

आजम खां को सपा सुप्रीमो की 'कमजोरी' माना जा रहा है, क्योंकि प्रदेश में उनकी स्थिति लगातार कमजोर हो रही है. पहले उन्हें विधानसभा और लोकसभा चुनावों में झटका लगा था और उसके बाद हाल के 28 उपचुनावों में भी अधिकांश सीटें बसपा के खाते में गई हैं. सपा इनमें से मात्र चार में ही जीत हासिल कर पाई. इस साल नवंबर में जिन दो सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, उन पर सपा ने मात्र अपना कब्जा ही बरकरार रखा है. लखीमपुर और निधौली कलां, (एटा) दोनों ही सीटें उसने 2007 के विधानसभा चुनावों में जीती थीं. हालांकि इन दो उपचुनाव में बसपा मैदान के बाहर ही थी.

2009 के लोकसभा चुनावों के बाद सपा नेतृत्व को लगा था कि भाजपा के पूर्व दिग्गज नेता कल्याण सिंह को, जिन्हें 'बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेदार' माना जाता है, गले लगाने की वजह से मुसलमान सपा से छिटके तो उसे भारी चुनावी नुक्सान उठाना पड़ा. 2009 के लोकसभा चुनावों में सपा के टिकट पर कोई मुसलमान जीत नहीं पाया था. उधर, बसपा के चार मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे, जिससे मुलायम को झटका लगा था. उन्हें एहसास हो गया कि मुसलमान उनसे दूर जा सकते हैं, जबकि यादवों के साथ मुसलमान ही सपा का बड़ा आधार हैं. {mospagebreak}

Advertisement

अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा फिर से जीतने के लिए सपा प्रमुख ने तुरत-फुरत नई रणनीति बनाई. उन्होंने पहला कदम यह उठाया कि 2009 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद बेमुरव्वती से कल्याण और उनके बेटे को अपने खेमे से बेदखल कर दिया. इसके बाद उन्होंने कल्याण से हाथ मिलाने को लेकर सार्वजनिक रूप से बिना शर्त माफी मांगी. फिर, उन्होंने अपने राजनैतिक भविष्य के लिए मुल्लाओं की दुआ मांगी. उन्हें कई मौकों पर और कई शहरों में मंच पर बड़ी दाढ़ी और गोल टीपी पहने मुल्लाओं से आशीर्वाद लेते देखा गया. एक तरह से यह मुस्लिम समुदाय को संदेश था कि कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के रूप में किए गए 'अपराध' के लिए मजहबी रहनुमाओं की ओर से माफ कर देने के बाद मुसलमान उनका साथ दें.

इसके बाद मुलायम सपा के संस्थापक सदस्य रहे अपने पुराने भरोसेमंद आजम खां की वापसी की कोशिश में गुपचुप तरीके से जुट गए. दरअसल, आजम खां सपा में पार्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह के बढ़ते प्रभुत्व के चलते नाराज थे. 2009 के लोकसभा चुनावों के समय आजम खां और अमर सिंह जयप्रदा की उम्मीदवारी को लेकर खुलेआम टकरा गए थे, पर मुलायम ने अंत में अमर के पक्ष में वीटो कर जयाप्रदा की उम्मीदवारी का ऐलान किया था. {mospagebreak}

Advertisement

चुनाव के दौरान जयप्रदा के विरोधियों ने उनके रामपुर क्षेत्र की दीवारों को अत्यंत आपत्तिजनक पोस्टरों से पाट दिया था. इसके बावजूद उनका हौसला पस्त नहीं हुआ और वे चुनाव जीत गईं. बाद में, आजम खां ने सार्वजनिक रूप से मुलायम और अमर सिंह को भला-बुरा कहा था. चुनावों का दौर खत्म होते ही उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया.

शुरू में, मुलायम सिंह को अपने दोस्त से दुश्मन बने आजम खां से किसी सकारात्मक जवाब की उम्मीद नहीं थी. इसलिए उन्होंने अपने पुराने दोस्त और कारोबारी मधुकर जेटली को यह जिम्मेदारी सौंपी, जिन्होंने इन दोनों वरिष्ठ नेताओं के बीच खाई को कम करने में मदद की. बताते हैं कि थोड़ी हिचक के बाद आजम खां सपा में लौटने को तैयार हो गए, पर उन्होंने कुछ शर्तें रखीं. वे चाहते हैं कि उन्हें विपक्ष के नेता के पद जैसी कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाए, 2012 के विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे का अधिकार मिले और मुस्लिम कल्याण के उनके एजेंडा में कोई बाधा न डाली जाए.

आजम खां के जोर देने पर सपा ने उनकी ओर से किसी तरह का अफसोस जताए बिना एकतरफा ही उनका निलंबन रद्द कर दिया. यही वजह है कि जब कुछ मुस्लिम विधायकों ने आजम खां की वापसी पर एतराज किया तो पार्टी प्रवक्ता और मुलायम के भाई राम गोपाल यादव ने उन्हें नोटिस थमा दिया, जिससे विरोध के सारे स्वर थम गए.{mospagebreak}

Advertisement

पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवपाल भी आजम खां की वापसी से खुश नहीं हैं, मगर वे चुप हैं. असल में मुलायम जानते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव उनके राजनैतिक वजूद की जंग से कम नहीं हैं. कांग्रेस जिस तरह से उभर रही है और साढ़े तीन साल सत्ता में रहने के बावजूद बसपा के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल नहीं है, ऐसे में मुलायम को अपने मुस्लिम-यादव जनाधार की दरकार है.

आजम खां के सामने घुटने टेककर सपा प्रमुख एक और बड़ी राजनैतिक भूल कर रहे हैं. यह सही है कि आजम खां मुस्लिम चेहरा हैं, प्रखर वक्ता हैं और अपने समुदाय की भावनाओं को उभारने में भी माहिर हैं, पर वे दिन बाबरी मस्जिद-अयोध्या मसले के ठंडा पड़ने के साथ ही लद गए हैं. मुलायम सरकार में मंत्री के रूप में अपने आखिरी कार्यकाल में आजम खां की छवि बेहद अहंकारी और जनता से दूर रहने वाले मंत्री की रही है और वे मुसलमानों को सपा से जोड़े रखने में भी नाकाम रहे.

इसके अलावा, आजम खां और सपा के नेता एक-दूसरे को खुलेआम इस कदर भला-बुरा कह चुके हैं कि उनकी विश्वसनीयता कम ही हुई है. कल्याण सिंह को ही लें. उन्हें एक बार भाजपा से बरखास्त किया गया था और 2007 के विधानसभा चुनावों से पहले उन्हें पार्टी में दोबारा शामिल कर लिया गया, मगर भाजपा को भारी चुनावी नुक्सान उठाना पड़ा क्योंकि कल्याण न तो वैसा सम्मान पा सके और न ही करिश्मा दिखा सके जैसा उन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन के दिनों में कर दिखाया था. {mospagebreak}

Advertisement

आजम खां का राजनैतिक कद कल्याण जैसा भी नहीं है, पर दोनों को समान हालात का सामना करना पड़ा है और उनकी वापसी उनकी पार्टियों के लिए बोझ साबित हुई है. इसके अलावा मुलायम इस तथ्य को भूल रहे हैं कि यदि कल्याण की वजह से मुसलमान सपा से दूर हुए थे तो उनके समर्थन के कारण ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा उम्मीदवार भाजपा को हरा सके थे क्योंकि वहां बड़ी संख्या में लोध वोट हैं. यदि मुलायम को लग रहा है कि वे आजम खां को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पेश करके 2012 का विधानसभा चुनाव जीत सकते हैं, तो उनके विरोधी आजम खां के भड़काऊ बयान की बिना पर उन्हें कमजोर करने की कोशिश करेंगे, भले ही आजम खां इस बयान का खंडन करते हैं.

मुलायम को पता होना चाहिए कि मुसलमानों में ही नहीं, यादवों में भी उनकी विश्वसनीयता घटी है. मुसलमानों को लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने हमेशा उन्हें छला है, क्योंकि पार्टी के अहम पद और सत्ता में रहते बड़े पद यादवों को ही मिलते रहे हैं. {mospagebreak}उधर, यादवों को लगता है कि पार्टी में सिर्फ एक यादव वंश का राज है और इसमें वे महज एक मोहरा हैं. मुलायम ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और अपने पुत्र अखिलेश की पत्नी को फिरोजाबाद के लोकसभा उपचुनाव में उम्मीदवार बनाया था, पर वहां यादवों ने कांग्रेस उम्मीदवार राज बब्बर को जिता दिया. यह मुलायम के लिए करारा झटका था और तब पूरे प्रदेश में संदेश गया था कि यादव वंश के लोग भी चुनाव हार सकते हैं.

Advertisement

बहरहाल, मुलायम को सिर्फ आजम खां को लुभाने के बजाए दूसरे कमजोर क्षेत्रों की ओर भी ध्यान देना चाहिए और पुख्ता रणनीति बनाने के लिए कठोरता के साथ विश्लेषण करना चाहिए. यदि वे आजम खां को लुभा सकते हैं तो पुराने नाराज दोस्तों बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर और अमर सिंह की ओर दोस्ती का हाथ क्यों नहीं बढ़ा सकते, जो अपनी कमजोरियों के बावजूद सपा को उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताकत बनाने में मददगार रहे. और यदि मुलायम को लगता है कि आजम खां ही उन्हें इस तूफान से किनारे लगा देंगे तो यह समय ही बताएगा कि वे सही हैं या गलत.

Advertisement
Advertisement