लखनऊ में विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के निवास पर बड़ा भावुक नजारा था. अपने पुराने दोस्त मधुकर जेटली के साथ मुहम्मद आजम खान 4 दिसंबर की दोपहर जैसे ही एंबेसेडर कार से उतरे, यादव के बेटे अखिलेश ने उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके पैर छुए. इस पर जद्गबाती हो चले दिखते खान ने भी खजूर का डिब्बा निकाला और उत्सुकता से इंतजार करते मुलायम को उपहार में थमा दिया. इसके बाद दोनों; कुछ पल एक-दूसरे से लिपटे रहे.
दरअसल खान की सपा में वापसी का रास्ता उनके साथ अहम रणनीतिकार तथा मुलायम के भाई रामगोपाल और यादव परिवार के विश्वस्त जेटली की कई दौर की अनौपचारिक मुलाकातों और फोन पर बातचीत के एक लंबे सिलसिले के बाद बना. खान वापसी के लिए थोड़ा वक्त चाहते थे. वे चाहते थे, कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करने के लिए मुलायम मुसलमानों के अलावा देश से भी खुलेआम माफी मांगें. पर रामगोपाल और जेटली ने तसल्ली से बिठाकर उन्हें समझया और रास्ता साफ हो गया. खान के मन बनाते ही यादव परिवार ने तय किया कि वापसी 4 दिसंबर को लखनऊ के पार्टी मुख्यालय में हो.{mospagebreak}
उस दिन मुलायम ने सभी पार्टी पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों को पार्टी मसलों पर बात करने के बहाने लखनऊ बुलाया. पर असल वजह सबको पता थी. पार्टी दफ्तर खचाखच भर गया था. खान की तकरीर के लिए जमीन तैयार थी. वे मुलायम के साथ एक ही कार से उतरे और धक्का-मुक्की करते मीडियाकर्मियों और पार्टी कार्यकर्ताओं को पीछे छोड़ते हुए मंच पर जा पहुंचे.
खान तो वैसे भी अपनी तकरीरों के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने मुलायम को मुसलमानों का ऐसा मसीहा बताया, जिसने मानवता की खातिर बाबरी मस्जिद बचाने के लिए 1990 में मुख्यमंत्री की अपनी गद्दी कुर्बान कर दी. मुलायम की आंखें गीली हो उठीं तो खान को भी रूमाल निकालना पड़ा. विधानसभा में विपह्न के नेता शिवपाल सिंह यादव ने तो खान की खातिर पद से इस्तीफा देने तक की भी पेशकश कर दी. पर खान ने यह कहकर मना कर दिया कि ''लोग बहुत नादान हैं, इसका गलत मतलब निकालेंगे.'' शिवपाल के इस्तीफे को फाड़ते हुए उन्होंने जद्गबात में कहा, ''दल से भले गया था, पर दिल से कभी नहीं.'' बाद में उन्होंने दोहराया कि वे पद और पैसे के लिए सियासत में नहीं बल्कि समाज के गरीब और मजलूम तबके की सेवा के लिए हैं. ''मेरा बैंक बैलेंस देख लीजिए. पुरानी कारों और कुछ कपड़ों के सिवा मेरे पास और कुछ भी नहीं.''{mospagebreak}
पर मुलायम और खान की अपने जद्गबाती रिश्तों को सियासत में ढाल लेने की असल परीक्षा अब शुरू होगी. अव्वल तो मुलायम को यह धारणा तोड़नी होगी कि सपा एक परिवार की जागीर है. पार्टी में चुनावों के दौरान भी उन पर मुसलमानों की कीमत पर अपने कुनबे को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है. दूसरे, खान के भारी स्वागत के बावजूद दोनों को यह साबित करना होगा कि कभी एक-दूसरे के लिए चुनिंदा तौर पर इस्तेमाल की गई गालियों आदि वाले उन दिनों को भुलाकर अब वे यकीनन एक हो गए हैं. तीसरे, दोनों को यह भी ध्यान रखना होगा कि उनका सियासी विकास राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद जैसे अत्यंत भावनात्मक मुद्दे की जमीन पर हुआ है. अब वह कोई मुद्दा नहीं रहा. सो, मुसलमानों को पार्टी में खींचकर लाने के लिए उन्हें नए मुद्दे तलाशने होंगे. पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में मुसलमानों के प्रभाव वाली पीस पार्टी के उभार और कांग्रेस के पुनर्जीवन से सपा को पार पाना होगा.
खान ने ऐसे वक्त में फिर से सपा का दामन थामा है, जब वह मुसलमानों में साख के संकट से गुजर रही है. पार्टी में कई नेता उनके शत्रु बन चुके हैं. क्या वे उस शत्रुता को सचमुच भुला पाएंगे? सपा यादवों और मुसलमानों के पारंपरिक वोट बैंक को फिर से अपने पाले में लाने की कोशिश करती रही है, पर कई दूसरे पहलुओं पर भी उसे काम करना होगा. अमर सिंह की विदाई के बाद पार्टी से राजपूतों का भी समर्थन मुख्यतः बसपा की ओर सरका है. ब्राह्मणों को अपने पाले में कर चुकीं मायावती अब राजपूत आइएएस-आइपीएस अफसरों को अहम पदों पर लगा रही हैं और राजपूत नेताओं को भी लुभा रही हैं. इसके विपरीत, मुलायम को लगता है कि मुसलमान-यादव जनाधार ही 2012 के चुनाव में उनका बेड़ा पार कर देगा. {mospagebreak}
सपा छोड़कर गए दूसरे नेताओं को भी लाने के लिए उनके संपर्क में बने जेटली का अब पूर्वानुमान है, ''खान की भव्य वापसी, बिहार में कांग्रेस की दुर्गति और उत्तर प्रदेश में बसपा का कुशासन, इन सब पहलुओं ने मुलायम से दूर गए कई नेताओं को दोबारा पास आने के लिए प्रेरित किया है.'' पर सवाल यह है कि साख के संकट से जूझ्ती सपा क्या ऐसे कुछेक नेताओं की वापसी के बूते जन भावनाओं पर खरी उतर पाएगी?