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28 सितंबर से शुरू हो रहा है मैसूर दशहरा

यूं तो दशहरा पूरे देश में मनाया जाता है लेकिन मैसूर में इसका विशेष महत्व है. इस समय मैसूर का राज दरबार आम लोगों के लिए खोल दिया जाता है और भव्य जुलूस निकाला जाता है. 10 दिनों तक चलने वाला यह उत्सव इस साल 28 सितंबर से शुरू हो रहा है.

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मैसूर दशहरा
मैसूर दशहरा

यूं तो दशहरा पूरे देश में मनाया जाता है लेकिन मैसूर में इसका विशेष महत्व है. इस समय मैसूर का राज दरबार आम लोगों के लिए खोल दिया जाता है और इस दौरान भव्य जुलूस निकाला जाता है. दस दिनों तक चलने वाला यह उत्सव चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है. इस बार यह उत्सव 28 सितंबर से शुरू हो रहा है.

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इस पूरे महीने में मैसूर महल को रोशनी से सजाया जाता है. इस दौरान अनेक सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. उत्सव के अंतिम दिन बैंड बाजे के साथ सजे हुए हाथी देवी की प्रतिमा को पारंपरिक विधि के अनुसार बन्नीमंडप तक पहुंचाते है. शहर की अद्भुत सजावट एवं माहौल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो स्वर्ग से सभी देवी-देवता मैसूर की ओर प्रस्थान कर गए हैं.

करीब पांच किलो मीटर लंबी इस यात्रा के बाद रात को आतिशबाजी का कार्यक्रम होता है. सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ निभाई जाती है.

दशहरे पर रोशनी से नहाया मैसूर पैलेस
भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मैसूर दशहरा प्रसिद्ध है. मैसूर में 600 सालों से अधिक पुरानी परंपरा वाला यह पर्व ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही इसमें कला, संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य भी है. महालया से दशहरे तक फूलों, दीपों एवं विद्युत बल्बों से सुसज्जित इस नगर की शोभा देखने लायक होती है.

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'दशहरा उत्सव' का प्रारंभ मैसूर में चामुंडी पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ होता है. इस उत्सव में मैसूर महल को 97,000 बिजली के बल्बों तथा चामुंडी पहाड़ियों को 1 लाख 63 हजार बिजली के बल्बों से सजाया जाता है. पूरा शहर भी रोशनी से जगमगा उठता है. जगनमोहन पैलेस, जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल का अद्भुत सौंदर्य देखते ही बनता है.

दशहरा उत्सव में डूबा मैसूर शहर
कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी मैसूर में दशहरा उत्सव को धूमधाम से मनाया जाता है. विजयनगर और वोदेयर वंश के यशस्वी साम्राज्य की याद ताजा कराने वाली इस परंपरा को वार्षिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है. धर्मशाला मंदिर न्यास के अध्यक्ष द्वारा चामुंडी पहाड़ी पर हिंदू देवी चामुंडेश्वरी का आह्वान करने के साथ इस उत्सव की शुरुआत होती है.

शरद ऋतु में मनाया जाने वाला यह उत्सव बुराई के खिलाफ अच्छाई की जीत का प्रतीक भी है. माना जाता है कि शक्ति की देवी दुर्गा का अवतार चामुंडेश्वरी ने दस दिनों की लड़ाई के बाद राक्षस महिसासुर का वध किया था. इस उत्सव के दौरान शास्त्रीय और लोकप्रिय नृत्य के साथ-साथ लोकगीत और संगीत का भी आयोजन किया जाता है. इस उत्सव में कई दशकों से समाज के अलग-अलग वर्गो के लोग उत्साहपूर्वक शामिल होते हैं. उत्सव में महिलाओं, ग्रामीण मान्यताओं और युवा शक्ति पर केंद्रित समारोह भी प्रस्तुत किए जाते हैं.

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शोभा यात्रा के दौरान मैसूर दशहरे की जंबो सवारी
'दशहरा उत्सव' के आखिरी दिन 'जंबो सवारी' आयोजित की जाती है. यह सवारी मैसूर महल से प्रारंभ होती है. इसमें रंग-बिरंगे, अलंकृत कई हाथी एक साथ एक शोभायात्रा के रूप में चलते हैं और इनका नेतृत्व करने वाला विशेष हाथी अंबारी है, जिसकी पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी प्रतिमा के साथ साढ़े सात सौ किलो का 'स्वर्ण हौदा' रखा जाता है.

विश्वास नहीं होता कि कैसे पुरातन काल में सिर्फ छैनी-हथौड़े के दम पर इतने खूबसूरत हौदे को बनाया गया होगा. यह हौदा मैसूर के कारीगरों की कारीगरी का अद्भुत नमूना है, जिन्हें लकड़ी और धातु की सुंदर कलाकृतियां बनाने में निपुणता हासिल थी. पहले-पहल इस हौदे का उपयोग मैसूर के राजा अपनी शाही गज सवारी के लिए किया करते थे. अब इसे साल में केवल एक बार विजयादशमी के जुलूस में माता की सवारी के लिए प्रयुक्त किया जाता है.

इसे देखने के लिए विजयादशमी के दिन शोभायात्रा के मार्ग के दोनों तरफ लोगों की भीड़ जमा होती है. जहां पर सुसज्जित अंबारी हाथी इतने आकर्षक लगते हैं कि लोग इन पर फूलों की बारिश करते हैं. यह सवारी बन्नीमंडप पहुंचकर समाप्त होती है. बन्नीमंडप से मैसूर महल की दूरी लगभग तीन किलोमीटर होती है. मैसूर में 'दशहरा उत्सव' के समय वातावरण उल्लासपूर्ण होता है. मैसूर महल के सामने प्रदर्शनी मैदान में इसका आयोजन किया जाता है. इसमें बहुत सी छोटी-छोटी दुकानें लगाई जाती हैं जिसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं.

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गौरवशाली अतीत की दास्तां कहता मैसूर का दशहरा
मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है. हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों द्वारा चौदहवीं शताब्दी में स्थापित इस साम्राज्य में नवरात्रि उत्सव मनाया जाता था. लगभग छह शताब्दी पुराने इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया.

कई मध्यकालीन पर्यटकों तथा लेखकों ने अपने यात्रा वृत्तान्तों में विजयनगर की राजधानी हम्पी में भी दशहरा मनाए जाने का उल्लेख किया है. इन लेखकों ने हम्पी में मनाए जाने वाले दशहरा उत्सव के विस्तृत वर्णन किये है. विजयनगर शासकों की यही परंपरा मैसूर पहुंची. गुजरात के द्वारका से मैसूर पहुंचे दो भाइयों यदुराय और कृष्णराय ने वाडेयार राजघराने की नींव डाली. यदुराय इस राजघराने के पहले शासक बने. उनके पुत्र चामराज वाडेयार प्रथम ने पुरगेरे का नाम बदलकर 'मैसूर' कर दिया और विजयनगर साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर ली. 1336 से 1465 यानी करीब 130 वर्ष का समय पूरे दक्षिण भारत के इतिहास का स्वर्ण युग था. विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने यहां की पारंपरिक दशहरा महोत्सव की परंपरा को जीवित रखा.

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वाडेयार राजाओं के पारंपरिक दशहरा उत्सवों से आज के उत्सवों का चेहरा काफी परिवर्तित हो चुका है. यह अब एक अंतरराष्ट्रीय उत्सव बन गया है. इस उत्सव में शामिल होने के लिए देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मैसूर पहुंचने वाले पर्यटक दशहरा गतिविधियों की विविधताओं को देख दंग रह जाते हैं. तेज रोशनी में नहाया मैसूर महल, फूलों और पत्तियों से सजे चढ़ावे, सांस्कृतिक कार्यक्रम खेल-कूद, गोम्बे हब्बा और विदेशी मेहमानों से लेकर जम्बो सवारी तक हर बात उन्हें खास तौर पर आकर्षित करती है. समय के साथ इस उत्सव की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि 2008 में कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का स्तर दे दिया जिसे नाद हब्बा कहा जाता है.

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