जो बात अमेरिका के लोगों को बहुत पहले ही पता चल चुकी है, वह अब भारतीयों को भी मालूम हो जाएगी. वह यह कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जितना अच्छा भाषण करते हैं, उतनी कुशलता से अपने काम को अंजाम नहीं देते हैं. पिछले दिनों उन्होंने पीटीआई को दिए साक्षात्कार में स्वीकार किया कि इसमें कोई अचरज की बात नहीं होगी अगर वे भारत की उम्मीदों पर भी खरे न उतर सकें. फिर भी इस सप्ताह के अंत में हम उनका भव्य स्वागत करेंगे. ओबामा भी ठीक-ठाक हावभाव दिखाने के साथ-साथ सही बातें करेगें, मगर हमेशा की तरह वे अपने वायदों को कभी पूरा नहीं करेंगे.
अभी तक भारत में ओबामा के प्रशंसक वही लोग हैं, जिनकी नजर अमेरिकी बाजारों पर है और जो अपने वतन से दूर न्यूयॉर्क और लॉस एजेंल्स में बसना चाहते हैं. दस महीने पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और ओबामा द्वारा हस्ताक्षर किए संयुक्त वक्तव्य पर अभी तक उन्होंने कुछ भी नहीं किया है. उनका प्रशासन भारतीय बाजारों में अपनी पहुंच तो चाहता है, वहीं चीन और पाकिस्तान के साथ भी साठगांठ बढ़ा रहा है.
मध्यावधि चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के पिटने का बाद उनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. इस समय ओबामा की पूरी कोशिश होगी कि वे भारत से अधिक से अधिक उपलब्धियां अमेरिका ले जा सकें. वे चाहेंगे कि भारत से अरबों डॉलर के डिफेंस कॉन्ट्रेक्ट ले जाएं, ताकि अमेरिका में रोजगार के हजारों अवसर पैदा हो सकें. वे भारत पर इस बात के लिए जोर डालेंगे कि भारतीय बाजार तक अमेरिकी कंपनी को अधिक से अधिक पहुंच मिले.
राष्ट्रपति चुनाव-प्रचार के दौरान उनका एकमात्र नारा था, "यस, वी केन". जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी मांगें रखेंगे, जिसमें अमेरिकी बाजारों में भारतीय कंपनियों की पहुंच, वीजा प्रतिबंधों में ढील, आउटसोर्सिंग पर उच्चतम सीमा और दोहरी तकनीक पर प्रतिबंध हटाना प्रमुख है, तो मुझे लगता है कि इन मांगों पर वे हाथ जोड़कर बोलेंगे, " आई एम सॉरी, आइ कैन नॉट..."