सत्ता की बागडोर संभालने के शुरुआती दौर में बराक ओबामा ताजा हवा के झोंके की तरह मालूम पड़ रहे थे. एक ऐसी बयार, जिसमें अमेरिका और पूरी दुनिया की दशा और दिशा को सुधार देने का माद्दा हो. उन्होंने जो नारा बुलंद किया, दुनियाभर में उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ी. लाखों लोग उनके ही स्वर में बोलने को तैयार हो गए-'हां, हम ऐसा कर सकते हैं.' लेकिन सरकार महज आशाओं और सुहानी हवाओं से नहीं चला करती हैं. बराक ओबामा के नेतृत्व के दो साल में अमेरिका और दुनिया अब यह समझने लगी है कि केवल कुशल वक्ता होना ही बेहतर राष्ट्रपति होने की गारंटी नहीं है.
बराक ओबामा 6 नवंबर को मुंबई की धरती पर कदम रख रहे हैं. ये ओबामा अपनी उस छवि से एकदम अलग हैं, जिन्होंने वाशिंगटन के पेंसिल्वेनिया एवेन्यू में लाखों लोगों की मौजूदगी में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी. यहां तक कि दुनिया के बाकी हिस्से में इसे भयमिश्रित विस्मय के साथ देखा गया. सत्ता के शुरुआती दौर में अपने देश में उनका पुरजोर स्वागत हुआ. उन्हें आशा की किरण और परिवर्तन का अग्रदूत तक मान लिया गया.
अपने कार्यकाल का लगभग आधा वक्त गुजर जाने तक ओबामा ने लंबे-चौड़े भाषण तो जरूर किए, पर उन्होंने यह पाया कि वास्तव में परिवर्तन लाना कठिन काम है. काहिरा विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए उन्होंने कहा, 'हमें क्या मिल रहा है, इसपर गौर करने की तुलना में दूसरों पर दोष मढ़ना ज्यादा आसान है. जो चीजें हमें साझा रूप से मिल रही हैं, उसकी तुलना में यह देखना ज्यादा आसान है कि किसे क्या अलग हासिल हो रहा है. फिर भी हमें सही रास्ते का चुनाव करना चाहिए, न कि सुगम रास्ते का. एक नियम भी है, जो हर धर्म की आत्मा में विद्यमान है-जैसा हम दूसरों के साथ करते हैं, बदले में दूसरों से वैसा ही पाते हैं.'{mospagebreak}
बराक ओबामा खुद कई मौकों पर सही राह चुनने की बजाए आसान रास्ता चुनने के दोषी हैं. अंत समय में अमृतसर का दौरा न करने का निर्णय घरेलू राजनीति से प्रभावित है. इसके पीछे यह भय काम कर रहा था कि अगर ओबामा अमृतसर जाकर अपने सिर पर एक ऐसा वस्त्र धारण करते हैं, जिसे पहनने वाले संदेह भरी नजरों से देखे जाते हों, तो इससे उनकी छवि खराब होगी. इसी वजह से ओबामा के सहायक इस निर्णय पर पहुंचे कि ओबामा का स्वर्ण मंदिर का दौरा जोखिम से भरा था. पेव रिसर्च सेंटर ने हालिया अध्ययन में पाया है कि 6 में से 1 अमेरिकी यह यकीन करता है कि ओबामा मुस्लिम हैं. उनकी छवि खराब होने का भय इस तथ्य से और भी पुख्ता हो जाता है.
ओबामा को वह वादा पूरा करना चाहिए था, जो उन्होंने काहिरा में किया था. उन्हें दूसरों के सामने एक उदाहरण पेश करना चाहिए था कि शरीर पर टोपी धारण करने या किसी दूसरे धर्मस्थल के दर्शन कर लेने मात्र से आपका अपना विश्वास कतई कमजोर नहीं पड़ जाता है. लेकिन उन्होंने सही रास्ता चुनने की बजाए आसान रास्ता चुनना ही पसंद किया.
ओबामा के परेशान होने के पीछे पर्याप्त कारण मौजूद हैं. ब्लूमबर्ग नेशनल ओपीनियन पोल के मुताबिक, ओबामा को वोट देने वाले प्रत्येक 10 में से 4 लोग उन्हें लंबे समय तक समर्थन देने के मूड में नहीं हैं. ओबामा के लिए आगे की राह मुश्किल मालूम पड़ रही है.{mospagebreak}
इसमें कोई शक नहीं है कि ओबामा भारत की संसद के संयुक्त सत्र में पूरी गर्मजोशी के साथ भाषण करेंगे. पर मूल प्रश्न यह है कि क्या ओबामा का दौरा महज सांकेतिक होकर रह जाएगा या इस दायरे से आगे जा पाएगा.
ओबामा भारत को लेकर कितने संजीदा हैं, इस बात की परीक्षा तो तब होगी, जब वे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर अपना रुख स्पष्ट करेंगे. ओबामा को दिखाना चाहिए कि भारत व अमेरिका के बीच रणनीतिक भागीदारी महज खानापूर्ति नहीं है और अमेरिकी राष्ट्रपति इस संबंध को गति देने को तैयार हैं.
अमेरिकी राजदूत भारतीय प्रेस से मुखातिब होते समय इस बात की पुरजोर कोशिश किया करते हैं कि ओबामा के दौरे से ज्यादा उम्मीदें न लगाई जाएं. अगर उम्मीदें थोड़ी होंगी, तो निराश होने की गुंजाइश भी कम ही होगी. जरा गौर कीजिए, ओबामा ने जब सत्ता संभाली थी, तो उनसे उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं.
चाहे उन्होंने उन उम्मीदों पर खरा उतरने की जितनी भी कोशिशें की हों, पर वे उन्हें पूरा करते नजर नहीं आ रहे हैं. इस तथ्य में राहुल गांधी के लिए भी एक सबक छिपा है. पर छोडि़ए, यह एक दूसरी कहानी का विषय है.