बिहार में विकास के संकेत बताते हैं कि 21वीं सदी में बिहार राष्ट्र की मुख्य धारा का हिस्सा हो सकता है. यह एक नया बिहार होगा जो अपने पिछड़ेपन, खंडित तथा विविध ग्रामीण पृष्ठभूमि के बावजूद विकास और बदलाव का व्यापक केंद्र बनेगा. जदयू-भाजपा गठबंधन की शानदार जीत के साथ ही उत्तरी और पश्चमी भारत में पिछले कुछ दिनों से बिहारी मानसिकता को लेकर चली आ रही अटकलों पर विराम लग गया है.
जी हां, बिहार के लोगों ने अपने मन की बात कह दी है. उन्होंने जाति, संकीर्ण पहचान, रिश्ते-नाते के बंधनों और व्यक्तिगत फायदे से ऊपर उठ कर विकास की निरंतरता का वायदा करने वाली सरकार को चुना है और फिर से 19वीं सदी की अवधारणा 'अल्प विकास के जरिए सामाजिक समानता' की बात करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. अब लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और कांग्रेस के कुछ क्षत्रपों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और आत्मचिंतन करनी होगी कि कौन सी सोच उनके राजनीतिक भविष्य के लिए खतरनाक है. {mospagebreak}
लेकिन इस भारी जीत के बाद, नीतीश कुमार और भाजपा से उनके निकट सहयोगी सुशील कुमार मोदी के सामने चुनौतियां और बढ़ गई हैं. लोगों ने विकास में विकास के प्रति विश्वास जताया है और अगले 5 वर्षों में उनकी उम्मीदें और बढ़ेंगी. लोग चाहेगें कि चुनाव प्रचार के दौरान जो वायदे किए गए सरकार उसे पूरा करे.
243 सीटों वाली विधानसभा में 200 से अधिक सीटें आना भाजपा-जदयू गठबंधन के लिए खतरे के संकेत हैं- काम करो वरना हम आपको भी धूल चटा देंगे. जवाबदेही और उत्तरदायित्व ही बिहारी जनता का पैमाना होगा जिसकी कसौटी पर पर वे सरकार को जांचेंगे और अपना अगला फैसला सुनाएंगें. अगले 5 साल तक नीतीश कुमाऱ किसी भी प्रकार की उदासीनता के लिए केंद्र को दोषी नहीं ठहरा सकेंगे.
नीतीश और उनके सहयोगियों को साबित कर दिखाना होगा कि वे बिहार में निवेश ला सकते हैं, उद्योगों की स्थापना करवा सकते हैं, बिहार में रोजगार के अवसर मुहैया कराना तथा बिहार से लोगों का पलायन रोकना होगा. उन्हें कानून व्यवस्था को बनाए रखना होगा, आपराधिक तत्वों पर नकेल कसनी होंगी. ईमानदार कर्मचारियों को अहमियत देना होगा तथा मनीआर्डर अर्थव्यवस्था पर रोक लगाना होगा. आगामी सरकार के लिए अपने आप में कोई काम नहीं है. {mospagebreak}
अभी तक किसी भी पार्टी या विधायक ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि विकास की रूपरेखा क्या होगी जिस पर नीतीश सरकार काम करेगी. नई सरकार विविधताओं और संकीर्णताओं से भरे बिहार में विकास के वायदे कैसे पूरी करेगी. सामाजिक एकता के लिए सरकार का क्या एजेंडा होगा, जो 50 के दशक में सरकार द्वारा प्रायोजित और समर्थित नीति हुआ करती थी. नीतीश सरकार विकास के काम में ठेकेदारों और उनके मित्रों को मुनाफाखोरी से कैसे रोकेगी. साथ ही साथ नीतीश सरकार नौकरशाहों के सामंती रवैयै को कैसे बदल पाएगी जो गरीबों तक सरकारी योजनाएं पहुंचने ही नहीं देते.
तो नीतीश सरकार इस तरह की दैनिक मुश्किलों से रूबरू होगी. सबसे गौर करने वाली बात यह है कि बिहार में यह राजनीतिक बदलाव लाने में महिलाओं की अहम भूमिका है. पिछले तीन दशक में मतदान में महिलाओं द्वारा इतनी तादाद में भागीदारी नहीं देखी गई. खास बात यह कि महिलाओं ने अपनी स्वेच्छा से वोट डाला और अपने परिवार या समाज की बातों में आकर वोट नहीं डाला. जब भी मीडिया ने छोटे शहरों में महिलाओं से बात की तो सभी ने एक सुर में कहा कि उन्हें एक शांतिपूर्ण सरकार चाहिए जो उन्हें सुरक्षा और विकास दे सके. {mospagebreak}
बिहार से बाहर के लोग इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि महिलाएं शुरू से ही खामोश परिवर्तन की प्रमुख तत्व रहीं हैं. जो लोग जेपी आंदोलन या आजादी के आंदोलन से वाकिफ हैं, उन्हें पता होगा कि बिहार की महिलाएं राजनीतिक तौर पर कितनी सजग और जागरुक हैं. रक्षा और सुरक्षा के मुद्दे ने एक बार फिर उन्हें परिवर्तन के लिए सक्रिय किया.
पत्रकार और राजनीतिक पर्यवेक्षक आने वाले दिनों में कई सवाल उठाएंगे. नीतीश सरकार अगर अपने वायदे में विफल रही तो आने वाले दिनों में उन्हें कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ेगा. मगर परिवर्तन के लिए डाला गया वोट अगले पांच साल में इस बात का आश्वासन है कि बिहार भूख, गरीबी, कुशासन और भ्रष्टाचार के चंगुल में फिर से नहीं फंसेगा. अब बिहार की जनता को जाति के नाम पर फिर से बेवकूफ बनाना संभव नहीं, जिसके आधार पर 1995 से 2005 तक सरकार चलाई गई. उम्मीद है कि बिहार के इस बदलाव में न्यूटन के बल का तीसरा नियम नहीं लागू होगा.