अब इसे महज इत्तेफाक कहें या फिर लोकपाल बिल का बखेड़ा. इसे आजतक 8 बार संसद में पेश किया गया. लेकिन ना जाने क्या बात है कि आजतक ये बिल पास नहीं हो पाया. अलबत्ता, सरकारें, जिन्होंने इसे पेश किया, उनमें से ज्यादातर लौटकर ही नहीं आ पाईं.
अन्ना जिस लोकपाल बिल को लेकर सरकार के पीछे पड़े हैं, उस बिल की अजीबोगरीब विडंबना है. सुनने में ये बड़ा अटपटा सा ही लगे, लेकिन इस बिल का कुछ सियासी इतिहास ऐसा है, जो बड़ा रोचक भी है और सरकार के लिए थोड़ा डराने वाला भी. हांलाकि, ये सब महज इत्तेफाक हो सकता है. ना ही इन बातों का कोई भी वैज्ञानिक आधार है. फिर भी ये एक रोचक राजनीतिक घटनाक्रम है कि जिसने भी इस बिल को छुआ, उसकी सरकार मुश्किल में फंसी.
एक नजर लोकपाल को लेकर अब तक के लफड़े पर.
1968 में इंदिरा गांधी के समय बिल लोकसभा में पास हुआ पर कानून नहीं बन पाया.
1971 में बेल फिर पेश हुआ लेकिन लोकसभा भंग होने की वजह से बिल लैप्स कर गया.
1977 में मोरारजी देसाई की सरकार ने इसे पेश किया. लेकिन स्टैंडिंग कमेटी को दिए जाने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई. इससे पहले ही मोरारजी पीएम से हट चुके थे.
1985 में राजीव गांधी ने संसद में बिल पेश किया पर 1989 में उनकी सरकार नहीं बनी.
1989 में वीपी सिंह ने बिल संसद में पेश किया. लेकिन पहले उनकी कुर्सी गई और फिर नौवीं लोकसभा भंग हो गई.
1996 में देवगौड़ा ने बिल संसद में रखा पर पर बिल पास हो उससे पहले ही लोकसभा भंग हो गई.
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार इस बिल के बाबत संसदीय कमेटी की सिफारिशों को देख पाती, उससे पहले ही उनकी सरकार गिर गई.
हांलाकि 2001 में वाजपेयी सरकार ने बिल को स्टैडिंग कमेटी को फिर से रेफर किया. लेकिन बिल पास होने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई और वाजपेयी की सरकार लौट नहीं पाई.
साफ है कि जिस सरकार ने भी संसद में ये बिल रखा उसमें से ज्यादातर दोबारा चुनी नहीं गई. अब पता नहीं कि साल 1963 में आया ये आइडिया ना जाने कब कानून बनेगा.