दिल्ली बिजली संकट से जूझ रही है महाराष्ट्र् के तमाम बड़े शहरों में बिजली की किल्लत मुंह बाये खड़ी है. देश की बड़ी आबादी अंधेरे में रहने को मजबूर है लेकिन देश में बिजली की योजनाओं के साथ कैसा भयानक मजाक हो रहा है और भ्रष्टाचार की हर हद कैसे तोड़ी जा रही है - उसका पूरा खुलासा किया है आज तक ने.
बात हो रही है उत्तराखंड के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की. वो योजना जो राज्य के लोगों की बेहतरी के लिये शुरू हुई लेकिन मालामाल हो गये वो जिनका दूर-दूर तक पावर प्रोजेक्ट से कोई लेना देना नहीं था. वो योजना जिसमें बिजली बनाने का ठेका देने में कानून की ऐसी तैसी कर दी गयी. वो योजना जिसके ठेके जिन पतों पर दिये गये वो पते ही नहीं हैं औऱ वो योजना जिसमें कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिये अलग अलग कंपनियां बनायी गयीं औऱ वो योजना जिसमें करोड़ों डकार लिये गये. घोटाले और गड़बड़झाले के लपेटे में हैं उत्तराखंड सरकार औऱ आजतक के पास वो सबूत हैं जो राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा कर देंगे. {mospagebreak}
आजतक की टीम उत्तराखंड की निशंक सरकार की धांधलियों औऱ भ्रष्टाचार की तह तक पहुंची है. दरअसल उत्तराखंड में 800 मेगावाट के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स के ठेके कुछ कंपनियों को दिये गये. चूंकि ये ठेके सेल्फ आइडेंटिफायड स्कीम के तहत थे इसलिये इनका कोई टेंडर नहीं निकला बल्कि सरकार ने अपनी मर्जी से ठेके बांटे. आज तक ने ठेका लेनेवाली कंपनियों का सच तलाशना शुरू किया. जैसे जैसे पड़ताल आगे बढ़ती गयी एक से बढ़कर एक चौंकानेवाले मामले सामने आते गये.
रवीन्द्र खंडूजा पेशे से चार्टड एकाउंटेट है और देहरादून के पॉश इलाके में इनका दफ्तर है. खंडूजा साहब के दफ्तर का पता है - 39, महारानी बाग, जीएमएस रोड देहरादून. उत्तराखंड सरकार के ऊर्जा मंत्रालय की साईट पर भी खंडूजा साहब के दफ्तर के पते वाली ही एक कंपनी नजर आती है. सच ये है कि ये कंपनी रवींद्र खंडूजा ने ही बनाई थी लेकिन दिसंबर 2008 में उन्होंने इसे बेच दिया.
अगले साल यानी 2009 में देवभूमि एनर्जी को उत्तराखंड सरकार ने पावर प्रोजेक्ट का ठेका दे दिया. मजेदार बात ये है कि आज भी देवभूमि का पता पुरानावाला ही है- यानी 39, महारानी बाग जीएमएस रोड़, देहरादून. उत्तराखंड की निशंक सरकार ने देवभूमि एनर्जी से ही जुड़ी एक और कंपनी डंडामुंडी पर भी मेहरबानी दिखायी जिसका पता भी फर्जी है.
निशंक सरकार पर वाकई सवाल बड़े गंभीर उठते हैं. इन्ही पावर प्रोजेक्ट्स की अगर सरकार ने नीलामी की होती तो करोड़ों का राजस्व जमा होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कानूनन होना यह भी चाहिये था कि एक कंपनी या एक आदमी को 25-25 मेगावाट के ज्यादा से ज्यादा तीन प्रोजेक्ट ही दिये जाते लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ.