आम बजट में राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकद चंदे की सीमा बीस हजार रुपये से घटाकर 2 हजार रुपये की गई तो सरकार ने यही कहा कि इससे चुनावी चंदे के गंदे खेल पर रोक लगेगी. लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकद चंदे में फैले गड़बड़झाले पर रोक मुमकिन है यही जानने के लिए आजतक ने तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं का स्टिंग किया. इस स्टिंग के सनसनीखेज खुलासे आपको हैरान करेंगे.
दरअसल, जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत बीस हजार रुपये से कम के नकद चंदे का स्रोत बताना अभी तक जरूरी नहीं था और राजनीतिक दलों को 75 फीसदी से ज्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिलता है. 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में तमाम राजनीतिक दलों को 2100 करोड़ रुपये का चंदा मिला और इसका 63 फीसदी नकद के रूप में लिया गया. बीते 3 लोकसभा चुनावों में भी 44 फीसदी चंदे की धनराशि नकदी के रूप में ली गई है लेकिन राजनीतिक दलों को कितना चंदा कहां से मिला-इसकी जानकारी कोई देना नहीं चाहता. आलम ये कि करीब एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल ही नहीं करते.
चुनाव लड़ना अब महंगा सौदा है. इतना महंगा कि बीते पांच साल के दौरान हुए चुनाव में करीब 1.50 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए और सिर्फ 2014 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने 30 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च किए लेकिन चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दल जो चंदा लेते हैं या कहें कि अपना वजूद बनाए रखने के लिए पार्टियां जो चंदा लेती हैं उसका ब्योरा देने से घबराती हैं.
आज तक के रिपोर्टरों ने समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बीजेपी, राष्ट्रीय लोकदल जैसी पार्टियों के नेताओं से मुलाकात की और उनसे मुलाकात कर कहा है कि अगर हम पार्टी को दस लाख रुपये चंदा देना चाहें तो बिना पैन कार्ड के कैसे देंगे. इन नेताओं ने बिना देर किए पूरा खेल समझा दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने दो टूक कहा कि आजादी के बाद आजतक किसी अधिकारी की राजनीतिक दलों का एकाउंट ऑडिट करने की हिम्मत नहीं हुई.
उन्होंने जो गणित बताया उसके मुताबिक कुर्सी के एक तरफ बैठकर नेता सूट बूट वाले दानकर्ता से कितना भी पैसा बिना झिझक ले लेता है और फिर 19000 या 19999 के चंदे की रसीद पकड़ा दी जाती है. राजनीतिक दल को बीस हजार से कम की रकम का स्रोत बताना नहीं होता तो उसे कोई दिक्कत नहीं और ये डर कभी किसी राजनीतिक दल को रहा नहीं कि उसका कोई कायदे से ऑडिट हो सकता है और हो भी जाए तो इसलिए डर नहीं कि रसीद तो हैं हीं और ये खेल बीते कई साल से बदस्तूर चल रहा है.
राजनीतिक दल के नेता हर स्तर पर ब्लैक को व्हाइट या गंदे को धंधा बनाने का खेल क्यों करते हैं, जिला स्तर के नेता अगर चंदा लाते हैं तो उन्हें कैसे फायदा होता है और इस पूरे खेल की कड़ियां कहां-कहां जुडती हैं, ये इन नेताओं ने विस्तार से समझाया. यूपी के चुनाव में हर दल ताल ठोंककर जमा है. सबको जीत से कम कुछ नहीं चाहिए और जीत के लिए पैसा चाहिए. पैसा चंदे से आएगा और चंदा अब धंधा है. और इस धंधे में हर पार्टी का खुला खेल फर्रुखाबादी है. आज तक के कैमरे के सामने तमाम नेता कैश में कितनी भी रकम चंदे में कभी भी लेने को तैयार हैं, और देने वाले को क्या फायदा है इसे बताने वाले गाइड भी हैं.
दरअसल, चुनाव आयोग चाहता है कि दो हजार रुपये से ज्यादा का गुप्त चंदा लेने पर रोक लगे. चुनाव नहीं लड़ने वाले राजनीतिक दलों को आयकर से छूट बंद हो. कूपन के जरिए चंदा देने वालों का भी पूरा ब्योरा रखा जाए. इस दिशा में सरकार ने 20 हजार की सीमा को दो हजार कर काम भी किया है लेकिन सवाल है कि क्या इस नियम से कुछ होगा. क्योंकि राजनेताओं के पास जैसी तोड़ है, उसमें नए नियम की धज्जियां उड़ाने में इन्हें वक्त नहीं लगेगा. सवाल ये है कि क्या 2000 रुपये चंदे की सीमा तय होने के बाद कुछ बदलाव आएगा. लगता तो नहीं है क्योंकि चंदा लेने में माहिर राजनेता इस खेल में इतने पारंगत हो चुके हैं कि छोटा-मोटा कोई नियम उनका काम नहीं बिगाड़ सकता.
(स्टिंग ऑपरेशन देखने के लिए वीडियो देखें)