आम आदमी पार्टी को बने हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है. ऐसा लगने लगा कि विचारों और सिद्धांतों से भरपूर एक राजनीतिक दल भारत में अपनी जगह बनाने लगा है. लेकिन तभी पार्टी में अंदरूनी कलह के संकेत मिलने लगे जो अंततः कोलाहल में तब्दील हो गए. जो लोग वर्षों से अरविंद केजरीवाल को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि उन्हें न तो आलोचना के स्वर पसंद हैं और न ही विभिन्नता के विचार. उनका जीवन उनके अपने कार्यकलापों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है और हमेशा साथियों को पीछे छोड़ते रहे हैं. वे अपना काम करते हैं, आगे बढ़ जाते हैं और उनके संगी-साथी पीछे छूट जाते हैं. उन्हें विरोध जरा भी पसंद नहीं है और इसलिए वे ऐसे लोगों से दूर हो जाते हैं जो उनसे विचार विभिन्नता रखते हैं.
इस बार भी ऐसा ही हुआ. उन्होंने पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों को बहुत समझदारी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव का कद अब पार्टी में छोटा हो गया है. कहने को तो पीएसी की बैठक में यह सब हुआ जिसमें केजरीवाल खुद नहीं गए लेकिन उन्होंने जो कुछ किया, वह दिख रहा है. उन्होंने ऐसा दिखाया जैसे कि पार्टी में आंतरिक मतभेद से उन्हें तकलीफ हो रही है लेकिन सच तो यह है कि उन्हें इस बात की तकलीफ ज्यादा थी कि पार्टी में उनके वर्चस्व और प्रभुता पर उंगलियां उठाई जा रही हैं. इसलिए उन्होंने बैठक में गए बगैर अपना काम कर दिया. इसके साथ-साथ यह भी साबित हो गया कि देश के तमाम राजनीतिक छत्रपों और केजरीवाल में कोई फर्क नहीं है. वे भी आंतरिक लोकतंत्र में यकीन नहीं रखते और अपनी बातें मनवाते रहते हैं.
बहरहाल अभी तो केजरीवाल की लोकप्रियता चरम पर है. मुफ्त का पानी और बिजली देकर उन्होंने जनता के एक बड़े वर्ग को अपना मुरीद तो बना दिया है लेकिन आगे वे कितने दिनों तक इसे बनाए रखेंगे, यह देखना दिलचस्पी का विषय हो सकता है. आम आदमी पार्टी देश की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों से अलग थी क्योंकि इसमें विचार और सिद्धांतों वाले लोग बड़ी तादाद में जुड़े थे जो न केवल भारत में हैं बल्कि विदेशों में भी रहते हैं.
प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को परोक्ष रूप से बाहर का रास्ता दिखाकर पार्टी ने उन्हें भी एक संकेत दिया है कि केजरीवाल सुप्रीम हैं और उनके सामने असंतोष के स्वर मायने नहीं रखते. वह जो चाहेंगे, करेंगे और इसके लिए उन्हें किसी की इजाजत नहीं चाहिए. अब योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण कुछ भी कहें और उन्हें कोई भी जिम्मेदारी सौंपी जाए, एक बात स्पष्ट है कि ये दोनों अब अवांछित हैं. केजरीवाल के काम करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं आएगा और आंतरिक लोकतंत्र तथा पारदर्शिता जैसे शब्द महज टीवी चैनलों पर पार्टी के प्रवक्ताओं के लिए होंगे. वे इन शब्दों को बोल-बोलकर पार्टी को महिमा मंडित करते रहेंगे.