भ्रष्टाचार के मामलों में जांच के लिए एक स्वतंत्र संस्था लोकपाल के गठन का इंतजार खत्म हो गया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पीसी घोष) देश के पहले लोकपाल बनने जा रहे हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से निकला लोकपाल कानून यूपीए-2 की सरकार के आखिरी दिनों में पास हुआ और 5 साल बाद एनडीए सरकार के आखिरी दिनों में लोकपाल की नियुक्ति का रास्ता साफ हुआ. लेकिन संस्था बनने के साथ ही लोकपाल की नियुक्ति और विश्वसनीयता को लेकर सवाल भी खड़े हो गए हैं.
लोकपाल आंदोलन का हिस्सा रहे वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने aajtak.in से बातचीत में कहा कि सरकार ने 5 साल तक नियुक्ति में देरी की. उसके बाद चयन प्रक्रिया से विपक्ष को हटा दिया. प्रशांत भूषण राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता भी हैं, इस सवाल के जवाब में कि क्या वो राफेल मामले की शिकायत लोकपाल में दर्ज कराएंगे, प्रशांत भूषण ने कहा 'ऐसे व्यक्ति को लोकपाल बना दिया जिसकी विश्वसनीयता पहले से ही संदेह के घेरे में है. तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के मामले में पहले तो वो महीनों बैठे रहें. फिर जयललिता के देहांत के बाद फैसला सुनाया. इसके अलावा पूर्व जस्टिस भट्टाचार्या भी जस्टिस पीसी घोष को लेकर काफी तल्ख टिप्पणी कर चुके है'.
लंबे समय से पारदर्शिता और जवाबदेही के लेकर जन आंदोलनों का हिस्सा रहीं सामाजिक कार्यकर्ता अंजली भारद्वाज का aajtak.in से बातचीत में कहना है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लंबे समय से लोकपाल जैसी स्वतंत्र और सशक्त संस्था की आवश्यकता थी. तब यह तय हुआ था कि स्वतंत्र व्यक्ति को लोकपाल बनाया जाएगा. लेकिन लोकपाल के चयन में अंतत: सरकार की ही चली.
कानून के मुताबिक लोकपाल का चयन पांच सदस्यीय समिति को करना होता है. जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि मिलकर एक प्रख्यात कानूनविद का चयन करते हैं. इसके बाद यह पांच सदस्यीय समिति लोकपाल का चयन करती है. लेकिन लोकसभा में पर्याप्त संख्याबल ना होने की वजह से कांग्रेस को विपक्षी दल के तौर पर मान्यता नहीं दी गई और लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को स्पेशल इनवाइटी के तौर पर बुलाया गया. जिस वजह से उन्होंने बैठक में आने से इनकार कर दिया.
अंजली भारद्वाज का कहना है कि विपक्षी दल की गैर मौजूदगी में प्रख्यात कानूनविद चुनने के लिए पैनल की संख्या 3 ही रह गई. जिसमें प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चलते सरकार का बहुमत हो गया. इस तीन सदस्यीय पैनल ने कानूनविद के तौर पर पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी को चुना, जो मौजूदा सरकार के करीबी माने जाते हैं. इस लिहाज से लोकपाल के चयन में खड़गे की अनुपस्थिति में सरकार की ही चली और यह एक सरकारी कमेटी बनकर रह गई.
अंजली का कहना है कि उन्होंने कई दफा सूचना के अधिकार कानून के जरिए लोकपाल चयन प्रक्रिया के बारे में पूछा लेकिन उन्हें सूचना देने से इन्कार कर दिया गया. इससे साफ होता है कि चयन में पारदर्शिता नहीं बरती गई. जो सबसे बड़ा सवाल है. इससे बनने से पहले ही संस्था में विश्वास को धक्का लगा है. अगर सत्ता में रहने वाले दल बीजेपी और कांग्रेस को ही लोकपाल की नियुक्ति करनी थी तो भ्रष्टाचार की जांच के लिए सीवीसी और सीबीआई तो पहले से ही है.
कानून में लोकपाल को बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं. लोकपाल को पीएम से लेकर सभी सरकारी अधिकारियों की जांच का पूरा अधिकार है. लोकपाल को शिकायत मिलने के 30 दिन के भीतर प्रारंभिक जांच करनी होगी. जिसकी अवधि बढ़ाकर 3 महीने की जा सकती है. तो वहीं जांच 6 महीने के भीतर पूरी करनी होगी जिसे 6 महीने और बढ़ाया जा सकता है. कुल मिलाकर 1 साल में जांच पूरी करनी होगी. इस लिहाज से लंबे समय से अटके पड़े भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में तेजी आएगी.
लेकिन अंजली भारद्वाज का कहना है कि यह तब संभव है जब लोकपाल सही तरीके से काम करे. केंद्र सरकार ने 2018 में भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम (Prevention of Corruption Act) में संशोधन के जरिए तय किया है कि सरकार की अनुमति के बिना जांच और पूछताछ की इजाजत नहीं होगी. ऐसे में सरकार अपने ही खिलाफ जांच की अनुमति क्यों देगी?
हाल में चर्चा में रहे बैंक धोखाधड़ी मामले, राफेल सौदा और सहारा बिड़ला डायरी को लेकर अंजली भारद्वाज का कहना है कि अगर लोकपाल होते तो वही इन मामलों की जांच करते. लेकिन सरकार ने पहले तो 5 साल तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं की और नियुक्ति की भी तो ऐसे समय जब आम चुनावों की अधिसूचना जारी हो चुकी है. जब इतना इंतजार कर लिया तो चंद महीने बाद जब नई सरकार आती तो उसे ही लोकपाल का चयन करने दिया होता. ऐसे में जाते-जाते बिना पारदर्शिता बरते लोकपाल की नियुक्ति करना एक पवित्र संस्था का नाम खराब करना है.