गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके राजनैतिक जीवन का सबसे बड़ा सहारा आज से 11 साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने दिया था. साल 2002 में पीएम वाजपेयी गुजरात दंगों के बाद सख्ती के मूड में थे, मगर आडवाणी के समझाने पर बस राज धर्म निभाने की बात कहकर चुप हो गए और कुछ ही महीने पहले केशुभाई पटेल को हटाकर मुख्यमंत्री बनाए गए मोदी बच गए. मगर तब से अब तक तीन विधानसभा चुनाव बीत चुके हैं, जिसमें जीत ने मोदी का कद पार्टी से भी बड़ा कर दिया.
वहीं आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी पिछला लोकसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है. इसके बावजूद आडवाणी अभी भी पार्टी में अपना केंद्रीय रोल देख रहे हैं और इसके लिए उनका लोकसभा में बने रहना बेहद जरूरी है. और अब इसके लिए आडवाणी मोदी का किसी भी तरह से सहारा नहीं लेना चाहते. सूत्रों की मानें तो आडवाणी ने यह तय कर लिया है कि वह अगला लोकसभा चुनाव गुजरात की गांधीनगर सीट से नहीं लड़ेंगे. इसके बजाय वह मध्यप्रदेश की भोपाल या इंदौर सीट से मैदान में उतर सकते हैं.
गुजरात बीजेपी के नेता भी इस बात को दबी जुबान में कबूलते हैं. आडवाणी के गांधीनगर सीट छोड़ने की वजह भी पार्टी का लोकल कैडर और मोदी ही हैं. जब नरेंद्र मोदी पार्टी में बहुत जूनियर लेवल पर थे, तब से, यानी 1991 से लालकृष्ण आडवाणी इस सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। 91 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी इसके अलावा नई दिल्ली सीट से भी चुनाव लड़कर जीते थे. उन्होंने दिल्ली में राजेश खन्ना को शिकस्त दी थी. मगर तब आडवाणी ने गांधीनगर सीट को चुना और नई दिल्ली सीट से इस्तीफा दे दिया. उसके बाद से वह लगातार गांधी नगर सीट से ही चुनाव जीतते आ रहे हैं. देश में एनडीए की लहर हो या न हो, उन्हें संसद पहुंचने में दिक्कत नहीं आई. मगर पिछले चुनाव में ऐसा नहीं हुआ. 2004 में वह 2 लाख 17 हजार वोटों से चुनाव जीते थे, मगर पांच साल बाद जीत का अंतर घटकर 1 लाख रह गया. वह भी तब मुमकिन हुआ, जब देश के दूसरे इलाकों में प्रस्तावित दौरों में कटौती कर आडवाणी को गांधीनगर सीट पर काफी वक्त खपाना पड़ा. इतना ही नहीं उनके परिवार के लोग चुनाव पूरा होने तक बस यहीं कैंप किए रहे.
पार्टी सूत्रों की मानें तो आडवाणी को तभी समझ आ गया था कि यह सीट उनका सुरक्षित किला नहीं रही. और इसके असुरक्षित होने में मोदी सरकार के एक फैसले का भी हाथ था. मोदी ने लोकसभा चुनावों से कुछ महीने पहले ही राज्य की राजधानी में एक अतिक्रमण विरोधी अभियान को फ्री हैंड दिया था. इसके चलते गांधी नगर में ऐसे सैकड़ों मंदिरों को रास्ते से हटा दिया गया था, जो अवैध रूप से कब्जा कर बने थे या फिर जो सड़क चौड़ी करने में आड़े आ रहे थे. इससे स्थानीय जनता में बीजेपी को लेकर काफी नाराजगी थी. लोकल पार्टी वर्कर भी आडवाणी के अभियान को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखे.
हालिया हालात की बात करें, तो मोदी की पीएम की महात्वाकांक्षा पर जब तब आडवाणी अंकुश लगाते रहे हैं. इसके लिए खुद अपनी दावेदारी की बात करने के बजाय बीजेपी के बुजुर्ग नेता मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की आड़ ले रहे हैं. मोदी के विकास पुरुष के दावे के बरक्स इसीलिए बार-बार पार्टी मंच से आडवाणी शिवराज का नाम लेना नहीं भूलते. शिवराज भी सरकार के बड़े कार्यक्रमों में उनसे ही अध्यक्षता करवाते हैं. ऐसे में मध्य प्रदेश से बेहतर ठिकाना आडवाणी के लिए और क्या होगा.