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सुलझा 'आडवाणी संकट', संघ प्रमुख से बात के बाद माने, मोदी पर नहीं बदलेगा फैसला

इस्तीफा देने के 24 घंटे बाद आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी मान गए. बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी के कई नेताओं की मौजूदगी में इस बात का ऐलान किया. आडवाणी के घर पर ही प्रेस कांफ्रेंस बुलाई गई थी, हालांकि खुद आडवाणी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में मौजूद नहीं थे.

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Lal Krishna advani
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इस्तीफा देने के 24 घंटे बाद आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी मान गए. बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी के कई नेताओं की मौजूदगी में इस बात का ऐलान किया. आडवाणी के घर पर ही प्रेस कांफ्रेंस बुलाई गई थी, हालांकि खुद आडवाणी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में मौजूद नहीं थे.

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राजनाथ सिंह ने आडवाणी के फैसले के बारे में सबको बताया. उन्होंने कहा कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आडवाणी से बात की और उन्हें पार्टी का फैसला कबूल करने की सलाह दी. आडवाणी ने उनकी सलाह मान ली. अपने इस्तीफे की चिठ्ठी में आडवाणी ने पार्टी के रंग-ढंग पर जो ऐतराज जताया था, उसे लेकर राजनाथ और आडवाणी के बीच बातचीत हुई. राजनाथ ने कहा कि जब भी आडवाणी जी को किसी तरह की शिकायत होगी, वे खुद उनसे बात करेंगे.

आडवाणी के प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में नहीं आने के सवाल पर राजनाथ सिंह ने कहा, 'यह सामान्‍य शिष्‍टाचार है. मैं प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में बोलता और वो मेरे बगल में बैठे होते, यह उचित नहीं होता.'

अपने ही घर के बैठकखाने से नदारद क्यों थे आडवाणी?
गोवा नहीं गए यह समझ में आता है लेकिन यह समझ में नहीं आया कि अपने ही घर के बैठकखाने से नदारद क्यों थे आडवाणी. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आडवाणी को अपना फैसला बदलने पर मजबूर कर दिया था.

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आडवाणी कुछ और नहीं कर सकते थे. राजनाथ सिंह दो दिन से आडवाणी को इशारों में लगातार समझा रहे थे कि उन्हें आज नहीं तो कल मानना ही पड़ेगा नहीं तो मन मारकर उन्हें उनकी चिट्ठी पर हस्ताक्षर करना होगा, क्योंकि मोदी तो जहां पहुंच चुके हैं वहां से उन्हें नहीं उतारा जाएगा.

राजनाथ सिंह को यह इक्का फेंकने के लिए राजस्थान जाना पड़ा. बांसवाड़ा जाकर साफ-साफ बोली निकली. भाषा भले अलग हो, लेकिन मतलब यही था कि आडवाणी बड़े हैं, सही हैं, आडवाणी बजुर्ग हैं यह भी सही है, आडवाणी की वजह से बीजेपी है यह भी सही है, लेकिन वह जो अब कर रहे हैं वो सही नहीं है.

बीजेपी के इस दर्द के बीच पार्टी की दुखी आत्माओं का आडवाणी के आवास पर पहुंचना जारी रहा. कुछ आराधना के लिए गए और कुछ अफसोस जताने, लेकिन बाहर निकले तो उम्मीद का झूठा दीया सबने सामने कर दिया. मान जाएंगे महोदय.

बीजेपी ने आडवाणी पर ही छोड़ा फैसला
दरअसल आडवाणी के इलाज का चिराग बीजेपी ने आडवाणी के ही आले में छोड़ दिया था. वह चाहें तो जला लें और चाहें तो बुझा रहने दें. इलाज यह था कि बीजेपी अब ऐसे ही चलेगी. अब यह उनपर है कि वह साथ चलेंगे या एकांतवास करेंगे.

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लाल कृष्ण आडवाणी लगातार लाल नजर आते रहे, लेकिन यह सच है कि मान जाना उनकी इकलौती और अंतिम मजबूरी थी और मजे की बात यह है कि मान जाने का बहाना खोजने की ज़िम्मेदारी भी बीजेपी ने अपने बुजुर्ग पर डाल दी.

कोई भोपाल से आया, कोई पटना से और कोई पड़ोस से, लेकिन बाहर निकलकर सबने यही कहा कि आडवाणी जी को मान जाना चाहिए, क्योंकि इसके अलावा और कुछ समझ में नहीं आता.

आडवाणी रूठे ही थे मान जाने के लिए
शाम होते-होते तय हो गया कि आडवाणी मान जाएंगे. आधा तो वो दोपहर में ही मान गए थे. आधे का सवाल था वो सियासत ने तय कर दिया. तो कुल मिलाकर आडवाणी रूठे ही थे मान जाने के लिए. वही बीजेपी, वही नेता और वही फैसले, लेकिन आडवाणी मान गए. घर में बैठे-बैठे रूठे थे और वहीं बैठे-बैठे मान भी गए. जसवंत सिंह इकलौते नेता हैं, जिन्होंने रूठ जाने के पीछे उनकी भावनाओं का जिक्र किया कि बीजेपी के कुछ नेता निजी एजेंडा पूरा करने में लगे हैं.

मुद्दों का समाधान तो न होना था न हुआ, क्योंकि जो मुद्दे आडवाणी ने उठाए थे वह मोदी के इतने महत्‍वपूर्ण हो जाने के पहले भी थे और बाद में भी रहेंगे, लेकिन इन दो दिनों में आडवाणी की समझ में यह आ गया है कि वो बीजेपी के गुजरे दौर के देवता हैं.

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समझ नहीं आया आडवाणी का मान जाना
जैसे आडवाणी का रूठ जाना किसी की समझ में नहीं आया वैसे ही आडवाणी का मान जाना भी किसी की समझ में नहीं आया, लेकिन वो बाकायदा रूठे भी और माने भी. दोनों भावनाएं आडवाणी ने बंद कमरे से जाहिर की.

ठीक तो होना ही था, क्योंकि इसके अलावा कोई चारा नहीं था, लेकिन सवाल अब दूसरा है और वह सवाल यह है कि आडवाणी अब करेंगे क्या? पार्टी के सामने उन्होंने एक दुविधा खड़ी कर दी थी कि उसे नरेंद्र भाई और लाल कृष्ण में से एक को चुनना होगा. पार्टी ने कहा कोई दुविधा है ही नहीं.

फिर आडवाणी ने पूरी पार्टी पर सवाल उठाते हुए राजनाथ सिंह को चिट्ठी क्यों लिखी और जब लिख ही दी तो दो दिन में क्या बदल गया बीजेपी में? क्या उन्हें सचमुच पार्टी की छवि की चिंता होने लगी थी? या फिर वह समझ गए थे कि संघ के दबाव के बाद मोदी पर बीजेपी के लिए यू टर्न अब मुमकिन नहीं? या फिर पार्टी और आडवाणी में कोई बीच का रास्ता निकल आया, जिसमें पद और सम्मान दोनों की गुंजाइश हो.

क्‍या पार्टी ने नहीं की आडवाणी की परवाह?
सच तो यह है कि आडवाणी की नाराजगी की परवाह ही पार्टी ने छोड़ दी थी. गोवा से लौटने के बाद एक दिन जरूर नेताओं ने इसपर चिंता भी जताई, लेकिन अगले ही दिन सब अपने-अपने काम में लग गए. नरेंद्र मोदी अलग सम्मेलन करते रहे और राजनाथ सिंह अलग. बाकी बचे समय में आडवाणी के लिए जितना सोच लिया उतना सोच लिया.

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बीजेपी के सबसे बड़े नेता के विकल्प सिमटते जा रहे थे और इसी के साथ बढ़ती जा रही थी दिल की धड़कन, क्योंकि एक दिन पहले का सवाल अब बदल गया था. सोमवार को सवाल यह था कि आडवाणी के बिना बीजेपी का क्या होगा, लेकिन अब यह कहा जाने लगा था कि बीजेपी के बिना आडवाणी का क्या होगा. आखिरकार आडवाणी के लिए कुछ नहीं बदला न बीजेपी बदली, न बीजेपी की बोली बदली और न बीजेपी के नेता बदले और न उन नेताओं की नीयत बदली. अब पार्टी के अंदर सब एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि जब यही करना था तो रूठे ही क्यों थे? 

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