जनता पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है कि वह अपनी पार्टी का बीजेपी में विलय करने के लिए तैयार हैं. यह बात उन्होंने गुरुवार को गुजरात भवन में नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद कही. स्वामी ने कहा कि हमारी पार्टी और बीजेपी में सैद्धांतिक तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर बीजेपी ठीक समझेगी, तो हम अपनी पार्टी के विलय के लिए तैयार हैं.
इसके अलावा स्वामी ने नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार के नए मामलों की जानकारी और उन पर संभावित रणनीति से भी अवगत कराया. बकौल स्वामी, मैं पिछले दिनों अमेरिका और चीन के दौरे से लौटा हूं. उसके अनुभव मोदी जी से शेयर किए. इसके अलावा करप्शन के जो नए मामले पिछले दिनों सामने आए हैं, उनके बारे में चर्चा की.
बीजेपी के साथ अपने पुराने रिश्तों की दुहाई देते हुए स्वामी ने कहा कि हम बहुत पहले से मित्र हैं. स्वामी ने कहा कि मैं मोदी को 1972 से जानता हूं. पुराने जनसंघी थे हम. उन्होंने यह भी जोड़ा कि बीजेपी के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व के सभी लोगों को वह कई दशकों से जानते हैं.
अकेले ही ढो रहे हैं जनता पार्टी की पोटली
इमरजेंसी के विरोध में 1977 में जब देश की प्रमुख विपक्षी पार्टियां जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आई थीं, तब जनता पार्टी का गठन हुआ था. इसमें चौधरी चरण सिंह की लोकदल, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली जनसंघ के अलावा कुछ और समाजवादी पृष्ठभूमि वाले छोटे दल थे. 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को बुरी तरह हराया था, मगर डेढ़ साल के भीतर पार्टी और सरकार में टूट शुरू हो गई. सभी बड़े नेता अपने हिस्से की जनता पार्टी लेकर अलग हो गए. सुब्रमण्यम स्वामी के मुताबिक वह जनता पार्टी के संस्थापक सदस्य थे और 1990 में इसके अध्यक्ष बने. तब से अब तक स्वामी ही पार्टी के इकलौते नेता हैं और जब कभी पार्टी संसद तक पहुंची, तो वह इकलौते सांसद रहे. 1999 में वह आखिरी बार लोकसभा का चुनाव जीते थे.
स्वामी की चाय पार्टी ने गिराई थी अटल सरकार
17 अप्रैल 1999 को लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीने पुरानी सरकार एक वोट से विश्वास मत हार गई थी. इस सरकार को गिराने वाले थे सुब्रमण्यम स्वामी. जनसंघी जुड़ाव वाले स्वामी अटल राज में अपनी उपेक्षा से दुखी थे. उन्होंने सरपरस्ती तलाशी तमिलनाडु में विपक्ष में बैठी जयललिता के पास. जयललिता अटल को समर्थन दे रही थीं और उसके बदले चाह रही थीं कि वाजपेयी सरकार तमिलनाडु में सत्तासीन करुणानिधि सरकार पर नकेल कसे. जयललिता को कई मामलों में अपनी गिरफ्तारी का डर था. उस वक्त स्वामी ही जयललिता के दिल्ली में पॉलिटिकल मैनेजर हुआ करते थे. तमाम रस्साकशी के बाद जब जयललिता को दिल्ली से अपेक्षित मदद नहीं मिली, तो स्वामी ने ट्रंप कार्ड चला. उन्होंने एक चाय पार्टी का आयोजन किया, जिसमें अम्मा की मुलाकत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से हुई. इसी के बाद अटल सरकार गिराने की रूपरेखा तैयार हुई और जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने समर्थन वापस ले लिया. अटल एक वोट से विश्वास मत हार गए और कांग्रेस सरकार बनाने की तैयारियों में जुट गई. मगर ऐन मौके पर सोनिया की महात्वाकांक्षा और स्वामी की प्रबंधन क्षमता पर सवालिया निशान लगाते हुए मुलायम सिंह यादव ने वीटो कर दिया और समर्थन की गणित बिगड़ गई.
इंदिरा ने कहा था ‘सांता क्लॉज’
स्वामी एक अर्थशास्त्री हैं और खुले बाजार की नीति के हिमायती. आज के दौर में यह साधारण वाक्य लग सकता है, मगर इंदिरा राज में ऐसा सोचने का मतलब था अमेरिकी नीति के पक्ष में खड़ा होना. ऐसा होते ही राजनैतिक गलियारों में आपको सीआईए का एजेंट करार दिया जा सकता था. उस दौर में स्वामी आईआईटी में फैकल्टी थे और लगातार देश की वित्त नीति की आलोचना करते हुए वैकल्पिक विचार पेश किया करते थे. सियासत का किस्सा कुछ यूं है कि स्वामी के तर्कों को खारिज करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा था कि वह ऐसे सांता क्लॉज हैं, जिनकी पोटली में सिर्फ अवास्तविक विचार भरे हैं. जल्द ही स्वामी को आईआईटी से निकलना पड़ा. तब उन्हें जनसंघ ने हाथोंहाथ लिया और राज्यसभा में सांसद बनाकर भेजा. इमरजेंसी के दौर में स्वामी गिरफ्तारी से बचने के लिए अमेरिका चले गए थे.
कट्टर हिंदूवाद के प्रवक्ता बन उभरे
अटल राज में स्वामी को बीजेपी और संघ से दूरी बनाकर रखनी पड़ी. मगर उसके बाद जब उनके संसद पहुंचने के भी लाले पड़ गए, तो वह मजबूरन भगवा दल की तरफ लौटे. उन्होंने सोनिया गांधी और उनके परिवार पर लगातार हमले किए. करप्शन के आरोप लगाए. इस बीच स्वामी ने एक लेख लिखा, जिसमें मुस्लिम आतंकवाद के सफाये का रोडमैप बताया गया था. बेहद विवादित इस लेख के बाद स्वामी पर कई अकादमिक संस्थानों ने प्रतिबंध लगा दिया था.