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मुजफ्फरनगर दंगों पर अखिलेश यादव सरकार की 10 गलतियां

27 अगस्त से उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में कवाल गांव में हुई एक घटना के बाद से सांप्रदायिक तनाव है. इसमें 41 से भी ज्यादा लोग मर चुके हैं और प्रदेश सरकार बस अधिकारियों के तबादले कर रही है और बयान दे रही हैं कि दंगाइयों को बख्शा नहीं जाएगा. अखिलेश यादव सरकार की 10 भयानक गलतियां जिनकी वजह से सुलग रहा है यूपी.

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य़ूपी के सीएम अखिलेश यादव
य़ूपी के सीएम अखिलेश यादव

27 अगस्त से उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में कवाल गांव में हुई एक घटना के बाद से सांप्रदायिक तनाव है. अब तक 41 से भी ज्यादा लोग मर चुके हैं और प्रदेश सरकार बस अधिकारियों के तबादले कर रही है और बयान दे रही हैं कि दंगाइयों को बख्शा नहीं जाएगा. अखिलेश यादव सरकार की 10 भयानक गलतियां जिनकी वजह से सुलग रहा है वेस्टर्न यूपी:

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1. कवाल गांव में 27 अगस्त को हुई पहली हिंसा. गौरव और सचिन नाम के युवकों ने शाहनवाज को मार दिया क्योंकि उसने कथित तौर पर इन दोनों की बहन के साथ छेड़खानी की थी. इस मर्डर से गुस्साई भीड़ ने इन युवकों को मार दिया. ये कानून व्यवस्था का मामला था.भीड़ का हमला आधे घंटे तक जारी रहा, मगर महज 1 किलोमीटर दूर बनी पुलिस पोस्ट से कोई फौरन मौके पर नहीं पहुंचा. पुलिस पहुंची मामला होने के एक घंटे बाद.

2. इस घटना के कुछ ही घंटों बाद यूपी सरकार ने मुजफ्फरनगर के एसएसपी मंजिल सैनी और डीएम सुरेंद्र सिंह का ट्रांसफर कर दिया. सरकार ने यह भी नहीं सोचा कि इन अधिकारियों को इलाके और हालात के बारे में बेहतर समझ है और नए अधिकारियों को यहां जमने में कुछ वक्त लगेगा.ऐसा ही हुआ और हिंसा नए इलाकों में फैल गई.

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3. दंगे शुरू होने के एक दिन बाद यानी 7 सितंबर को जब यूपी सरकार जागी तब भी इमरजेंसी मीटिंग सीएम अखिलेश यादव ने नहीं, बल्कि उनके पिता सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने बुलाई. मगर इसका भी कोई असर नहीं हुआ. उसी दिन जाट महापंचायत हुई और उस रात तक दंगों में मरने वालों की संख्या आधिकारिक तौर पर 11 पहुंच गई.

4. दो बार जाट महापंचायत हुई और पुलिस प्रशासन देखता ही रह गया. पहली बार यह 31 अगस्त को हुई और दूसरी बार 7 सितंबर को. दूसरी पंचायत में मौत का बदला लेने की बात मंच से की गई. इस पंचायत को आयोजित करने की अनुमति नहीं थी. इसके अलावा दो छोटी पंचायतें भी हुईं 28 अगस्त और 4 सितंबर को.

5. इसी तरह से पुलिस ने मुसलमानों की पंचायत पर भी रोक नहीं लगाई. शहर में धारा 144 लगे होने के बावजूद मुजफ्फरनगर शहर में 29 अगस्त को यह सभा हुई. मुसलमान नेताओं की दलील है कि हम डीएम को जाटों की महापंचायत के खिलाफ मेमोरेंडम देने गए थे. मगर डीएम दफ्तर के गेट पर बड़ी सभा हुई और इसे जाटों ने चुनौती के तौर पर लिया. प्रशासन एक बार फिर तमाशा देखता रहा.

6. दंगों के शुरुआती दौर में यानी 7 और 8 सितंबर को पुलिस और पैरामिलिट्री के पास न तो कोई रणनीति थी और न ही आपसी तालमेल. किसी गांव में हिंसा की खबर आती तो पीएसी को वहां भेज दिया जाता. फिर आधे रस्ते में खबर मिलती कि दूसरे गांव में भी हिंसा है तो वापस बुला वहां भेज दिया जाता. इससे कीमती वक्त बर्बाद हुआ.

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7. एक इंग्लिश न्यूजपेपर के मुताबिक जाट लड़कों ने इंसार वकील नाम के युवक को शाहपुर से उठा लिया और उसे अपनी सखेड़ा गांव में हुई महापंचायत में ले गए. यहां से वह भागने लगा तो उसे पीट पीटकर मार दिया गया. इस जगह से पुलिस स्टेशन महज 50 मीटर दूर है.इतना ही नहीं इंसार का अपहरण करने के बाद लड़कों ने कई पुलिस चेक पोस्ट पार किए, मगर पकड़े नहीं गए.

8. दंगे होते ही सैकड़ों लोग अपने गांवों से भागने लगे. इसकी वजह यह थी कि हिंसा की खबर मिलने के घंटों बाद पुलिस मौके पर पहुंच रही थी. ऐसे में गांव वालों ने जब देखा कि मस्जिद में भी आग लगा दी गई है, तो वे मजबूरी में पुलिस स्टेशन में जाकर डेरा डालने लगे, ताकि जान सुरक्षित रहे.

9. लोगों की रक्षा करने गए बाहर के पुलिस बलों को स्थानीय सपोर्ट नहीं मिला. ये समझ लीजिए के तैनाती पर जा रहे बलों को भी कई बार रास्ता भटकने के बाद अपना रूट मिला. यहां तक की एडीजी लेवल के अधिकारी का भी जब कारवां आया, तो उसे कई बार रास्ता भटकने के बाद मंजिल मिली.
10. सिर्फ एक जगह पुलिस पर भीड़ ने फायरिंग की. इसके अलावा कहीं भी पुलिस के हताहत होने या संघर्ष में शामिल होने की खबर नहीं है. इसका यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि पुलिस बलों ने उन इलाकों में जाने की जहमत नहीं उठाई जहां हिंसा हो रही थी. वे मौके पर पहुंचे तो देर से या फिर रूट बदलते रह गए.

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