दिल्ली के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपने नेता डॉक्टर हर्षवर्धन का नाम आगे बढ़ाया तो यह स्वाभाविक था कि आम आदमी पार्टी (आप) किसी दमदार नेता को उनके खिलाफ खड़ा करती. कहा गया कि कवि कुमार विश्वास उनके खिलाफ लड़ेंगे. लेकिन कुमार विश्वास ने साफ मना कर दिया. जो लोग डॉक्टर हर्षवर्धन को जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि उनके दामन पर भ्रष्टाचार का दाग नहीं है और वे एक लोकप्रिय नेता हैं. कुमार विश्वास हिम्मत नहीं जुटा पाए. लेकिन पार्टी के 28 सीटें जीतने और सत्ता में आने के बाद उनका आत्म विश्वास कुछ ज्यादा ही बढ़ गया और वह राहुल गांधी को उनके चुनाव क्षेत्र में ही चुनौती देने जा पहुंचे.
अमेठी में कुमार विश्वास की कथनी और करनी में फर्क नजर आया. एक तरफ तो वे अपने को नौकर बताते रहे हैं और दूसरी ओर 300 गाड़ियों के काफिले में वहां पहुंचकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया. वहां उन्होंने लंबा भाषण दिया. भाषण में उन्होंने अहम के भाव को नहीं छोड़ा और शब्दों को सिर्फ अपने पर केन्द्रित रखा. पार्टी की नीतियों और केजरीवाल के नेतृत्व पर चर्चा करने की बजाय वह सिर्फ अपने पर ही बातें करते रहे. उन्होंने यहां तक कह दिया कि वहां से उनकी जीत देश के लिए दूसरी आजादी जैसा होगा! निष्कर्ष यह है कि अमेठी के इस भाषण को उन्होंने अपनी पोजीशनिंग का एक अच्छा मौका बना लिया. उन्हें पता है कि यह वो जगह है जहां से वे चुनाव हारें या जीतें, अपने को स्थापित जरूर कर सकते हैं.
यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां पर उन्हें अच्छी पब्लिसिटी मिल सकती है. इंदिरा गांधी को राजनारायण ने रायबरेली से हराकर सारी दुनिया में अपने नाम का डंका बजा दिया था. वे जानते हैं कि वहां से पराजय भी उन्हें इतना मशहूर कर देगी कि कई नए रास्ते खुल जाएंगे. और जिस तरह का व्यवहार कुमार विश्वास कर रहे हैं उससे लगता है कि वह इन्हीं रास्तों की तलाश में हैं. उनका अति आत्म विश्वास भले ही उन्हें भा रहा हो, उससे आम आदमी पार्टी का कुछ भला नहीं होने वाला है.