प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को रक्षा क्षेत्र से बड़ी चुनौती मिलने वाली है. मोदी चाहते हैं कि दुनियाभर की कंपनियां भारत में आकर भारत के लिए हथियार और साजो-सामान बनाएं. इरादा यह है कि भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान आधुनिक तकनीक दूसरे देशों को बेचने की हैसियत में आ सकें. पर हकीकत यह है कि देश में रक्षा संबंधी उपकरण और तकनीक बनाने वाली शीर्ष सरकारी संस्था रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) को ही अपनी एक-एक खोज और उपकरण को पेटेंट कराने में 10-10 साल तक लग जा रहे हैं. अपनी खोज पर पेटेंट नहीं मिल पाने की स्थिति में डीआरडीओ अंतरराष्ट्रीय प्रतिरक्षा बाजार से आंख मिलाए तो कैसे?
इस समय डीआरडीओ के 500 से ज्यादा आवेदन सालों से लंबित हैं. इंडिया टुडे ने डीआरडीओ की ओर से संवेदनशील मिसाइल प्रणाली के बारे में डाली गई दर्जनों पेटेंट अर्जियों की एक-एक कर पड़ताल की और पाया कि पांच साल पहले डाली गई ज्यादातर अर्जियों पर तो अभी विचार भी शुरू नहीं हुआ है. ये अर्जियां ऐसी मिसाइलों से संबंधित थीं, जिन्हें दुर्गम, समुद्री इलाकों और विपरीत परिस्थितियों में सफलतापूर्वक दागना है. दिलचस्प यह है कि देश का पेटेंट कार्यालय इन अर्जियों को बिल्कुल तवज्जो नहीं दे रहा. वहीं, रूस, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर जैसे देशों से कई अर्जियों को दो साल के अंदर पेटेंट प्रमाणपत्र मिल गया.
विदेश में पास और देश में लटके
मिसाइल लॉन्चर और रोबोटिक्स से जुड़े निर्माण में अव्वल डीआरडीओ की पुणे प्रयोगशाला रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट स्टैब्लिशमेंट ने 2007 में ब्रह्मोस मिसाइल
के लिए मोबाइल मिसाइल लॉन्च सिस्टम तैयार किया. इससे जुड़े अलग-अलग पेटेंट हासिल करने के लिए 2009 में अर्जी लगाई गई. पांच साल में इनमें से
किसी भी अर्जी को पेटेंट हासिल नहीं हुआ है. इसी दौरान 2010 में दायर इसी तरह के पेटेंट आवेदनों को दक्षिण अफ्रीका ने मई 2012 में और सिंगापुर ने
नवंबर 2012 में पेटेंट जारी कर दिया. ब्रह्मोस मिसाइल के लिए ही बनाए जा रहे मोबाइल मिसाइल ऑटोनॉमस लॉन्चर को भारत में पेटेंट का इंतजार है,
जबकि रूस सरकार ने इसे पेटेंट जारी कर दिया है.
खतरे में मेक इन इंडिया
अपने छह पेटेंटों की बाट जोह रहे डीआरडीओ के एक वैज्ञानिक का दर्द है, ‘तकनीक की दुनिया बहुत तेजी से बदलती है, ऐसे में आठ-दस साल बाद तो
हमारी मेहनत कूड़ा हो जाएगी.’ इस मुद्दे पर डीआरडीओ के सूचना निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक रवि कुमार गुप्ता का तर्क है कि ‘पेटेंट नहीं मिलने से ज्यादा
फर्क नहीं पड़ता. हमारी सेनाओं को जिन उपकरणों और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना है, उसे इस्तेमाल कर सकती है. पेटेंट का मुख्य मकसद तो यह है कि
आपकी तकनीक कोई दूसरा हासिल नहीं कर सके और करे तो आपको रॉयल्टी दे.’
‘मेक इन इंडिया’ की याद दिलाने पर वे कहते हैं, ‘डीआरडीओ प्रौद्योगिकी निर्यात को लेकर अभी तक तो बहुत आक्रामक नहीं रहा है लेकिन मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाओं में कई लोगों की भागीदारी होगी, ऐसे में बेहद धीमी पेटेंट प्रक्रिया चुनौती पेश कर सकती है.’ यानी रक्षा बाजार खुलते ही पेटेंट जरूरी होंगे.
पेटेंट दफ्तर में छह साल का बैकलॉग
पेटेंट विभाग के मुंबई दफ्तर के एक वरिष्ठ अधिकारी आगाह करते हैं, ‘अगर किसी अर्जी से संबंधित शोधपत्र को प्रकाशित होने में या उसकी जांच शुरू होने
में ही कई साल लग जाते हैं और इस बीच कोई दूसरा पक्ष उस तकनीक को बना लेता है, तो पेटेंट दूसरे पक्ष के खाते में भी जा सकता है.’ इस अधिकारी के
शब्दों में, ‘पेटेंट विभाग में कम से कम छह साल की पेंडिंग लिस्ट चल रही है और डीआरडीओ या किसी दूसरी संस्था को इसमें कोई वरीयता नहीं है.’ अगर
एक दशक बाद पेटेंट मिल भी जाए और फिर मामला अदालत में चला जाए तो भगवान ही मालिक, क्योंकि भारत में आवेदन करने की तारीख से अगले 20
साल के लिए ही पेटेंट वैध होता है. पेटेंट ऑफिस में इस समय 1.5 लाख अर्जियां अटकी पड़ी हैं.