वो 9 अगस्त की तारीख थी जब वर्ष 2014 में अमित शाह को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व दिया गया. पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह ने एक शानदार पारी संभाली. तीन वर्षों में लगातार अथक परिश्रम से पार्टी को जीत के बाद जीत दिलाते गए. जहां नहीं जीते, वहां और तरीकों से जीत उनके कोटे में दर्ज होती गई. एक सफल अध्यक्ष और एक कुशल प्रबंधक के तौर पर अमित शाह अजेय बने हुए हैं.
हालांकि यह संयोग ही रहा कि उनका अध्यक्ष बनना 8 अगस्त के लिए तय हुआ था और वो अध्यक्ष बने 9 अगस्त को. यही बात ठीक तीन साल बाद फिर से देखने को मिली. अमित शाह राज्य की राजनीति से निकलकर दिल्ली आए तो उन्हें दायित्व संगठन का दिया गया. लेकिन दायित्व के तीन साल बाद उन्हें अब संसद सदस्य बनने का पुरस्कार मिल गया है.
इस पुरस्कार की तारीख भी तय थी. पहले की ही तरह. आठ अगस्त. लेकिन दिनभर के राजनीतिक घटनाक्रम में गिनती आगे बढ़ती रही और जबतक उनके जीतने की घोषणा होती, नौ अगस्त शुरू हो चुका था.
नौ अगस्त की दोनों तारीखें अमित शाह के लिए खासी अहम हैं. एक से सफर शुरू हुआ दिल्ली का तो दूसरी से सफर शुरू हुआ संसद का. अमित शाह अब भारतीय संसद के सदस्य हैं. संसद सदस्य के रूप में अब उनके लिए नए-नए रास्ते खुलते जाएंगे. वक्त यह भी देखेगा कि अमित शाह संसद सदस्यता के ज़रिए कहां कहां पहुंचते हैं.
लड्डू में रेत
यह भी ठीक है कि विवादों से अमित शाह का पुराना नाता रहा है. लेकिन जीत के हारना और प्रतिष्ठा की लड़ाइयों में चींटी जैसी सीमित शक्ति वाली पार्टी से अपने ही दुर्ग में मुंह की खाना एक खराब ओपनिंग जैसा है. यह ठीक ऐसा है कि आप जीत का लड्डू अपने मुंह तक ले जा रहे हों, और समय की आंधी उसपर धूल, रेत झोंक जाए.
अमित शाह अपने अभेद्य दुर्ग से अपनी जीत को एक बड़े संदेश में बदलना चाहते थे. उनके आने का रास्ता तो साफ था लेकिन उन्हें कुछ और ज़्यादा, कुछ औऱ शानदार एंट्री करनी थी. इसलिए यह तय किया गया कि गुजरात से राज्यसभा को कांग्रेस मुक्त करके इस जीत को ऐतिहासिक बना दिया जाए. संकट यह था कि उन्होंने जिसका रथ रोकना चाहा, वो कांग्रेस का चाणक्य समझा जाता है. यह लड़ाई चाणक्य बनाम चाणक्य की हो चली थी.
अमित शाह ने अहमद पटेल की हार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. लेकिन नियति पटेल के साथ रही और कैबिनेट मंत्रियों और सरकारी अमलों की ताकत लोकतंत्र के संख्या गणित के आगे बौनी साबित हो गई. अमित शाह जीत तो गए लेकिन इस जीत में न तो उत्साह बना और न ही नैतिकता. जिस तरह का खेल राज्यसभा चुनाव के इर्द-गिर्द दोनों पार्टियों ने खेला, वो भले ही जीत दिला सका हो, लेकिन इतने नीचे स्तर पर उतर चुकी राजनीति के बाद जीत अर्थहीन हो चुकी है. लोगों के बीच चर्चा जीत की नहीं है, दांवों की है, गिरे स्तर की है. अनैतिकता के नए प्रतिमानों की है.
भाजपा की डोर संभालते अमित शाह के लिए हर तरफ मंगल-मंगल सुनाई दे रहा था. लेकिन संसद सदस्य के तौर पर पारी की शुरुआत एक कसक के साथ हुई है. अमित शाह की जीत में ही एक हार भी परछाई बनकर चिपक चुकी है. राजनीति में कुछ अनिष्ठ अच्छे नहीं होते. लेकिन यह 9 अगस्त एक अपशगुन के साथ शुरू हुआ है.