लेडीज..अभिवादन आप अपने हिसाब से अज्यूम कर लें, सबसे पहले तो बता दें हम कौन हैं. हम उस पीढ़ी से आते हैं जिसे सच में नहीं पता कि पहले महिलाओं पर पुरुषों ने कितने अत्याचार किए,क्यों किए या कैसे किए? हम उसका हिस्सा नहीं रहे इसलिए कोई अपराधबोध भी नहीं है, नहीं है माने नहीं है. दलित-दमित-अबला वगैरह सुनने में ही बड़ा पैथेटिक फील देते हैं और ‘पुरुषप्रधान समाज’ या ‘पितृ सत्ता’ जैसे शब्द हमारे एक्जाम में दो-दो नम्बर की वेटेज रख के आएं तब भी हम उसका अर्थ न बता पाएंगे. फिर उसका हिस्सा बनने की बात ही और रही.
हम उस पीढ़ी से आए हैं जिनके लिए बच्चियां,लडकियां या औरतें हौव्वा नहीं थीं. मतलब हमारे लिए आप थीं हमेशा से. बगल वाली बेंच पर नर्सरी में हमारे साथ ही टिफिन खाया करती थीं. गुलाबी टिफिन वाली वो बच्चियां कभी हौव्वा नहीं लगी. हम हाफ पैंट पहनकर जाते वो ट्यूनिक. तब सर लोगों से ज्यादा मैम की क्लास होती थीं. अच्छी होती थीं उनको सब आता था डांटती भी कम थीं. कभी-कभी मैम की जगह मम्मी निकल जाता. एक जैसी तो ही होती थीं. पूरी क्लास हंसती मैम मुस्कुरा देतीं. कैसा तो भी लगता था. इसलिए हम तो कभी ये कभी सोच ही नहीं सकते कि औरतें बस घर में बैठने को हैं. फिर बड़े हुए हमारी पैंट लम्बी हुई गुलाबी टिफिन वाली लड़कियां स्कर्ट में आ गईं. अब भी वो टिफिन खातीं जब. वो टिफिन खातीं हम मोजे की गेंद से कहीं गिप्पी-गेंद खेल रहे होते. फर्क बस ये पड़ा था कि अब उनके सामने मार पड़ जाती तो इन्सल्ट ज्यादा महसूस होती.
भूले जा रहे थे... महिला दिवस की शुभकामनाएं
ये महिला दिवस, गजब दिन है सच में. मतलब ठीक है, होना चाहिए औरतों के लिए भी एक दिन. जनरल नॉलेज का एक जवाब ही तैयार हो जाता है. फेसबुक पर कैची अपडेट्स आते हैं.
दुनिया बाकी दिनों में चाहे जैसी हो उस दिन बस दो खेमे में बंटी नजर आती है. एक वो जिन्हें लगता है कि हर साल लड़कियां टॉप भी सिर्फ इसलिए कर जाती हैं क्योंकि कॉपीज मैम चेक
करती हैं लड़कियों को ज्यादा नंबर दे डालती हैं. इनका बस चले तो दुनिया भर की बच्चियों को, लड़कियों को, औरतों को सात तहखानों के नीचे बंदकर आएं. इन्हें लड़कियों के
हंसने-बोलने, पढ़ने-लिखने, सीखने-समझने और सबसे खास फैसले लेने से भी दिक्कत होती है. दूसरे वो जिनके लिए महिला सशक्तिकरण का मतलब औरतों के एक हाथ में बोतल और
दूसरे में सिगरेट है. इनके अनुसार दुनिया की सारी औरतें तब तक सशक्त नही हैं जब तक लड़कों जैसे खुले में सिगरेट नहीं पीतीं. बिन-ब्याही माएं नही बनती. दस-दस ब्वॉयफ्रेंड्स नहीं
बनाती. ऐसा समझिए कि औरतें अपने फैसले लेने को आजाद है जब वो इनके कहे अनुसार अपने फैसले लेने लगें. ऐसे लोगों को नारीविवादी कहते हैं.
हम डिप्लोमैटिक नही होना चाहते पर सब जानते हैं निकोटिन सबके लिए खराब होती है. आदतें बुरी हों तो मम्मी दोस्त बदल डालने को कह देती हैं. बाकी दारु-बीड़ी या गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड कोई बड़ी बात नहीं है और सशक्तिकरण का पर्याय तो कतई नहीं. हर किसी के दिमाग में अपनी कहानी चल रही है यकीन मानिए आपके सिवा किसी को फर्क नही पड़ता आप कितनी पी सकती हैं या आपके कितने ब्वॉयफ्रेंड हैं. लड़ना अच्छी बात है पर परछाईं से नहीं.
बुरा लगता है जब पूरे समूह में लपेटकर हमें भी लम्पट-ठरकी या बलात्कारी ठहरा दिया जाता है. उम्मीद की जाती है सिर झुकाकर ही कह देंगे, कई तो मान भी लेते हैं. ये उनकी चारित्रिक दुर्बलता है उनके लिए लड़कियों का जींस पहन लेना ही बवाल होता था पर हम नही मानेंगे. हमें स्टैंड लेना आता है. गलत को गलत कहना आता है, घटिया नॉनवेज जोक्स पढ़कर घिन आती है, ब्रा की स्ट्रिप देख हमारा कौमार्य नही भंग हो जाता, स्लीवलेस टॉप और साढ़े छह इंच की स्कर्ट देख हार्मोन्स नही फड़फड़ाने लगते, लड़की को लड़के का हाथ पकड़ के जाते देख हमारी पुतलियां चौड़ी नहीं होती हमने हमेशा से अपने आस-पास ये सब देखा है. अब फर्क पड़ना बंद हो गया है आम बाते हैं ये.. जितना आम हमारा होना या आपका होना. हम बड़ी गजब पीढ़ी से आते हैं हमारे कैनवास वाले जूतों के ऊपर मम्मी के कहने पर बांधा काला धागा होता है.
तो महिला दिवस पर ये कि अच्छा है आप लोग हैं हमारे आस-पास, मम्मी-बुआ-मैम-गर्लफ्रेंड, पड़ोसन-सहयात्री-सहकर्मी किसी भी रूप में. बहुत सुन्दर होती हैं आप सब. आपकी हैंडराइटिंग अच्छी होती है. आप लोग अटेंशन सीकिंग नहीं होती हैं, हम आपकी बराबरी नहीं कर सकते पर आपको कुछ स्पेशल ट्रीट भी न करेंगे. क्योंकि सच में जरूरत बस इसी की होती है. आप तो समझती हैं.
आपके आस-पास की एक पीढ़ी