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भूकंप और किसानों की आत्महत्या के बाद कुदरत के नाम खुला खत

किसानों की आत्महत्या और नेपाल में आए भीषण भूकंप के बाद कुदरत के नाम खुला खत.

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कुदरत के नाम खुला खत
कुदरत के नाम खुला खत

प्रिय कुदरत,
आज जब मैं दिल्ली में बैठा तुम्हें खत लिख रहा हूं तो पूरब में यूपी, बिहार और नेपाल की तरफ से मुझे लाशों और नए खरीदे कफन की बू आ रही है. तुम इतनी निर्मम कब से बन गई. हम इंसानों की गलतियों पर बुरा मानकर तबाही मचाने का तुम्हारा ये पेशेवर अंदाज मुझे कचोट रहा है.

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भूकंप के बाद दफ्तर से लौटते हुए एक रेस्त्रां खाना खाने गया, तो मेरी नजर रेस्त्रां में खड़े सिक्योरिटी गार्ड पर पड़ी. टीवी पर भूकंप की खबरें देखती उसकी निगाहें आंसूओं से छलकने लगी. पास जाकर वजह पूछी तो मालूम चला कि उसके गांव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही जनकपुर है. जहां भूकंप आने से उसकी कितनी ही यादें भयानक मलबे में दब चुकी हैं. आंसू पोंछते हुए सिक्योरिटी गार्ड बस इतनी ही बोल पाया, कुदरत अब जालिम हो चली है.

बचपन से नैतिक शिक्षा के पाठ में ये सबक सीखता आया हूं कि कुदरत से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. छोटे बच्चे से बड़ा हो चला हूं, पर ये सबक मैं और मुझ जैसे बहुत से लोग अब भी नहीं सीख पाए हैं. अफसोस इतनी पुरानी और उदास दिलों को अपने एक हवा के झोंके से चहका देने वाली कुदरत भी दिल से बड़ी नहीं हो पाई.

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हमारी कुदरत अब सुकून पहुंचाने वाली कुदरत नहीं, पेशेवर हो चली है. बदला लेने वाली कुदरत. हजारों लाशों की छाती पर रोते-पीटते हाथ और उदास निगाहें आज तुम्हारी वजह से पत्थर हो चली हैं. शनिवार को भूकंप के बाद तुम्हारा एक फिर नया रूप देखने को मिला. खबरों से जुड़ा काम है तो तुम्हारे बदला लेने के दौरान दफ्तर में था. लोगों के दफ्तर से बाहर भागने के डर और कुछ पल बाद बच जाने पर तुम्हारे खेल पर हंसते हुए लोगों को देखा.

तुम्हारी घड़ी यानी सूरज जैसे जैसे दाएं से बाएं की तरफ बढ़ी, दफ्तर और बाहर काम कर रहे लोगों के चेहरे पर चौंकती आंखों को दुख से टिमटिमाते देखने लगा. बड़ा बुरा लगा. कोई फर्क नहीं लगा तुम में और हम इंसानों में. कुदरत अब तुम्हारा दिल भी छोटा हो चला है, हम इंसानों की तरह. हिमालय जैसा सीना लिए तुम आज भी एक घोर कलयुगी इंसान की तरह दिखाई दी, जो बदला लेने और खुद को ऊपर रखने के इरादे से जिंदगी के बीच सफर में लोगों को धोखा दे देते हैं.

भूकंप के बारे में तुम्हारे बदले को सोच ही रहा था कि कल के अखबार की पहली खबर पर नजर गई. फलां गांव में किसान ने की खुदकुशी. कुल संख्या बढ़कर इतनी हुई. वजह वही, बारिश. कभी कम बारिश की वजह से तो कभी ज्यादा बारिश की वजह से. तुम इतनी पत्थर दिल हो चली हो कि शहर में की हमारी छेड़छाड़ का बदला गांव में मेहनत करने वाले गरीब किसानों से लेने लगी हो.

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किसानों की मौत के लिए कोई सरकार और नेता से कहीं ज्यादा जिम्मेदार तुम हो. गांव को तबाह कर शहर बनाने वाले बारिश के आने पर समोसे चाय का लुत्फ उठाते हुए फेसबुक अपडेट और आई लव रैन करते रहे तुम बारिश के जरिए कहर बरसाती रही. शहर की वाहवाही के बीच तुम्हें गांव में खड़ी फसलें और घरों की खुंटियों में टंगे पसीने से तर किसानों के मटमैले कपड़े नहीं दिखाई दिए. खड़ी फसलें तुम्हारी तेज बारिश की वजह से लंगड़ी होकर गिर पड़ीं और जिन खेतों से किसान के परिवार को फसल की उम्मीद थी, वहां उनके बेटे-बाप-भाई-पति की लाश उगने लगी.

कुदरत कभी कहर बरसाने से फुर्सत मिले तो सोचना खेतों में फसल की जगह किसी अपने की लाश को लटकते देखना कैसा लगता होगा. हम इंसान तुम्हारे पहाड़ों की तरह पत्थर नहीं हुए हैं. अपनों की लाश को देखकर सीने के भीतर ज्वालामुखी सा फट जाता है. बस चीखने की आवाज कुछ देर में शांत हो जाती है. पर तुम अपने कठोर दिल और बदले रूप के फेर में धीरे-धीरे एक शांत प्रकृति से भयानक बदला लेने वाली कुदरत हो चली हो.

कुदरत, तुमसे छेड़छाड़ और दखल के लिए तुमसे माफी मांगना महज दिखावा होगा. इसलिए मैं तुमसे बस एक बात कहना चाहूंगा, कुदरत की एक किस्त इंसान की उस मुस्कान से है जो उसने तुमसे हासिल की है. हम लोगों की जिंदगी में अब भी एक सुकून देने वाली ममता का सहारा कुदरत ही है. तुम ही हो. इंसान को उसकी गलतियों के लिए एक बड़े दिल वाली कुदरत की तरह माफ करने और तुम्हें कम अहमियत देने का अधिकार देते हुए हमें वो सारे हक दो, जब हम तुम्हारे शुक्रगुजार रहें. ठीक उसी तरह जैसे बचपन में मेरे किसान दादा दीवाली पर घर में दीया जलाने से पहले एक दीया खेत के बीच में रखकर पूरे हक से कहते थे, 'जागो धरती मां जागो'.

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