इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला पिछले 61 साल से चले आ रहे विवाद, सांप्रदायिक संघर्ष, राजनीतिक और धार्मिक टकराव का पटाक्षेप करने वाला है. 30 सितंबर को यह फैसला दो हिंदू और एक मुस्लिम जज ने सुनाया है.
भारत के लिए यह एक ऐतिहासिक क्षण है. इस फैसले ने यह दिखा दिया है कि 1992 अब एक बंद अध्याय है और 2010 का भारत राजनीतिक और धार्मिक समेत सभी नजरिए से एक अलग देश की तरह है. यह अलग बात है कि इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की बात कही गई है. भारत के लोग शांति में विश्वास करने की चाहत रखते हैं, न कि हिंसा की काली छाया में. यह महज संयोग नहीं है वर्ष 1992 में ही भारत के आर्थिक सुधारों को अंजाम दिया गया था, जब तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह अब प्रधानमंत्री हैं.
2.7 एकड़ भूखंड पर दिए गए ऐतिहासिक फैसले में विवादित जमीन तीन पक्षकारों में विभाजित करने की बात कही गई है. यह अयोध्या मसले का सर्वोत्तम संभावित हल पेश करता है. अब अतीत को दफनाए जाने की जरूरत है और शांतिपूर्ण समाधान आने को तैयार है, जो हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के लिए स्वीकार्य हो सकेगा. भारत के लिए यह फैसला मील का पत्थर है.
बीजेपी समेत हमारे तमाम नेता, जो कि इस मसले पर कई चुनाव लड़ चुके हैं और सिद्धांतों की बात करते हैं, उन्हें शांति व फैसले का सम्मान करने के लिए अपील करनी चाहिए. लेकिन, असली जीत हमारी उस न्यायपालिका के लिए थी, जो खुद जनता की नजर में कठघरे में खड़ी की जाती रही है. इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में संभावित अपील बावजूद, मैं असीम विद्वता के लिए न्यायमूर्ति शर्मा, अग्रवाल और खान को सलाम करता हूं.