जिस लोकपाल की मांग ने अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल को साथ किया, एक ताकत के रूप में स्थापित किया और एक बड़े जन आंदोलन को जन्म दिया, उसने ही दोनों को दूर कर देने का भी काम कर दिया.
आज बेशक केजरीवाल कह रहे हों कि लोकपाल विधेयक पर अन्ना हजारे को कांग्रेस या बीजेपी के लोगों ने बरगला दिया है, लेकिन सच तो यह है कि इस अलगाव की शुरुआत उन्होंने ही की थी. अन्ना ने अपने आंदोलन की शुरुआत में ही साफ कह दिया था कि वह राजनीति से दूर रहना चाहते हैं और उनका लक्ष्य भ्रष्टाचार से लड़ना है. लेकिन केजरीवाल लक्ष्मण रेखा को लांघ गए और पार्टी बना बैठे. यह अन्ना की विचारधारा के खिलाफ था और उस समय ही दोनों में मतभेद हो गए, जिसकी परिणति अब दिख रही है.
अब अन्ना लोकपाल विधेयक को उसके वर्तमान रूप में ही पारित किए जाने के पक्ष में हैं. उनका कहना है कि यह बिल काफी हद तक उन जरूरतों को पूरा करेगा, जिनकी बात उन्होंने की थी. इससे कम से कम एक शुरुआत तो होगी. लेकिन केजरीवाल पुरानी मांग पर ही अड़े हुए हैं और वे कह रहे हैं कि उन्हें जन लोकपाल विधेयक से कम कुछ नहीं चाहिए. इस विधेयक से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं होगा और यह भ्रष्टाचारियों को बचाने का एक रास्ता बन जाएगा. उनका कहना है कि यह विधेयक नरम है और इससे कोई लाभ नहीं होगा. वे सीबीआई को भी आजाद करने की मांग कर रहे हैं. इतना ही नहीं वे यह भी कह रहे हैं कि इससे कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को माइलेज मिलेगी और वे इसका श्रेय ले जाएंगे.
बात साफ है कि अब दोनों के रास्ते अलग-अलग हो चुके हैं. एक राजनीतिक दल के नेता होने के नाते ज़ाहिर है केजरीवाल यह कतई नहीं चाहेंगे कि अन्ना किसी और दल या राजनेता की तरफदारी करें या फिर कुछ ऐसा करें कि उनके अलावा किसी और की वाहवाही हो.
अब सवाल है कि केजरीवाल यह कैसे तय कर सकते हैं कि अन्ना क्या पसंद करें या क्या नहीं? अन्ना जानते हैं कि बहुत सख्त लोकपाल विधेयक वर्तमान व्यवस्था में संभव नहीं है. राजनीतिक दल उसके लिए तैयार नहीं होंगे. शुरुआत करना एक बेहतर रास्ता है. लेकिन केजरीवाल चाहते हैं कि एक झटके में सब कुछ बदल दिया जाए.
जो भी हो, दोनों अब दूर-दूर हो चुके हैं और अब उनके मिल-बैठकर देश की समस्याओं पर बातें करने की संभावना नहीं है. यह देश के लिए दुखद है.