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हर शोर में 'नायक' ढूंढ़ते हैं सवा सौ करोड़ लोग...

कन्हैया कुमार से लेकर हार्दिक पटेल वाया नरेंद्र मोदी तक हर नाम के पीछे लहरा रहे झंडे (तिरंगे को छोड़कर) का रंग अलग-अलग है. लिहाजा मौजूदा वक्त में सवा सौ करोड़ की भूख रोटी से आगे बढ़कर या तो दाल की है या फिर एक ऐसा नेता कि जो उनकी आकांक्षाओं, सपनों और आस को पूरा कर सके.

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बीते पांच वर्षों में देश में बढ़ी 'नायक' की भूख
बीते पांच वर्षों में देश में बढ़ी 'नायक' की भूख

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कन्हैया कुमार, अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी, अन्ना हजारे और इन सब के बीच कहीं हार्दिक पटेल. बीते सवा पांच वर्षों में ये पांच लोग न सिर्फ चर्चा-ए-आम हुए, बल्कि‍ नाम कमाया और फिर कमोबेश सवा सौ करोड़ की अपेक्षाओं के आगे या तो धराशायी हो गए, या फिर अपेक्षाओं के साथ उसे पूरा करने की समय सीमा के आगे अब धूमिल पड़ते जा रहे हैं. जबकि कश्मीर से कन्याकुमारी और उत्तरपूर्व से दक्षिण-पश्च‍िम तक आस अभी भी बाकी है.

अब जरा रुपहले पर्दे की दुनिया के वो दो दृश्य याद कीजिए. एक फिल्म 'नायक' का जहां अनिल कपूर को एक दिन का मुख्यमंत्री बनाया जाता है और रातों-रात सिस्टम को सुधार दिया जाता है. दूसरा फिल्म 'राजनीति' का वह सीन जहां नसीरुद्दीन शाह सत्ता के मंच के सामने चीख कर कहते हैं, 'ये पेट की मारी जनता है राय साहब. एक रोटी का आसरा दे दीजिए, दो मीठे वादे कर दीजिए, किसी भी रंग का झंडा उठा लेगी.'

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यानी गौर कीजिए तो कन्हैया कुमार से लेकर हार्दिक पटेल वाया नरेंद्र मोदी तक पांच में हर नाम के पीछे लहरा रहे झंडे (तिरंगे को छोड़कर) का रंग अलग-अलग ही है. लेकिन यह सिनेमा नहीं है, लिहाजा मौजूदा वक्त में सवा सौ करोड़ की भूख रोटी से आगे बढ़कर या तो दाल की है या फिर एक ऐसा नेता कि जो उनकी आकांक्षाओं, सपनों और आस को पूरा कर सके. शायद यही कारण है कि झंडे के रंग के साथ ही इन पांच नामों के पीछे मुद्दे भी अलग-अलग रहे हैं.

देश को मुद्दा नहीं 'नेता' चाहिए
आजादी के 68 साल बाद लोकसभा से लेकर हर राज्य की विधानसभा में नेताओं और माननीयों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है. स्थानीय स्तर पर भी नेताओं के संख्याबल की कमी नहीं है. लेकिन ये दुर्भाग्य ही है कि इन सब के बावजूद जनता आज भी अपने के लिए आवाज उठाने वाले 'नायक' की तलाश में है. शायद यही कारण है कि चरित्र और चाल के आगे मुद्दे गौण हो गए हैं. क्योंकि तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करके अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का उदय हुआ तो कालाधन और गरीबी के बल पर नरेंद्र मोदी का. समुदाय विशेष के लिए आरक्षण की मांग कर हार्दिक पटेल हीरो बन गए तो देशप्रेम और देशविरोधी की बहस ने कन्हैया को रातों-रात 'नायक' बना दिया.

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ना ना करते... राजनीति
यह भी अजब संयोग हैं कि इन पांच से हर किसी ने अपने शुरुआती दिनों में राजनीति को 'ना' ही कहा है. जबकि इनमें से दो (केजरीवाल और मोदी) जहां फुल-फ्लेज्ड राजनीति का हिस्सा हैं, वहीं दो (कन्हैया और हार्दिक) फिलहाल राजनीति से परहेज की बात कर रहे हैं. जबकि बात छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में हो या समुदाय विशेष की लड़ाई की, दोनों नेतागीरी ही कर रहे हैं. यानी मौजूदा हालात और पिछले उदाहरणों को देखकर दो बातें समझ में आती हैं. पहली कि बदलाव की बात करने वाले हर शख्स को आखि‍रकार राजनीति में आना ही पड़ता है और दूसरी यह कि जब आप समाज और समुदाय की बात करते हैं तो ना ना करते हुए भी आपको राजनीति से प्यार हो ही जाता है.

बीते पांच वर्षों में क्या मिला, क्या सीखा
पिछले पांच वर्षों की बात करें तो देश के सवा सौ करोड़ लोगों को जिस एक 'नायक' की भूख है, उसकी तलाश में कई चेहरे सामने तो आए, लेकिन तृप्ति‍ नहीं मिली यह तय है. क्योंकि यही कारण है कि सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक आज हर कोई कुछ दिन ही सही हर उस शख्स के पीछे संभावना तलाश रहा है, जो बदलाव की बात करता है. लेकिन अफसोस की अपेक्षाओं के बोझ तले कोई भी इंस्टेंट उपाय निकाल नहीं पाया. जबकि देश बीते 68 वर्षों में हालात और व्यवस्था से इस कदर त्रस्त है उसे सुकून भी झटपट चाहिए. बिल्कुल 'नायक' फिल्म की तरह.

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अब आगे क्या...
भूख अभी भी है. तलाश जारी है. पुराने विकल्प धाराशायी हो रहे हैं! भविष्य से उम्मीदें भी हैं. लेकिन मौजूदा समय में आम नागरिक के लिए जरूरी इस बात की भी है कि इंस्टेंट उपाय और चाहत की आदत में थोड़ा बदलाव लाया जाए. यानी धैर्य. यह धैर्य नेता के चुनाव से लेकर उसको लेकर राय कायम करने तक हर जगह नजर आनी चाहिए. क्योंकि झटपट राय बनाने के चक्कर में आस टूटती है और यहां मामला देश का है, टू मिनट नूडल्स का नहीं.

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