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ओवैसी ने सदन में सुनाई हबीब जालिब की नज्म, लेकिन लड़खड़ाते रहे शब्द

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए असुद्दीन ओवैसी शायर हबीब जालिब की नज्म को गलत तरीके से पढ़ गए.

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असदुद्दीन ओवैसी
असदुद्दीन ओवैसी

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ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलमीन (AIMIM)के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने शुक्रवार को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान मोदी सरकार को तमाम मुद्दों पर घेरा और पूछा कि क्या वह भारत को दलित और मुस्लिम मुक्त बनाना चाहती है. हालांकि मोदी सरकार पर निशाना साधने के लिए उन्होंने मशहूर शायर हबीब जालिब की जिस नज्म का सहारा लिया, उसे पढ़ते हुए वह लड़खड़ाते रहे. समय कम होने की वजह से हड़बड़ी में नज्म के कुछ शब्द इधर-उधर भी हो गए.

लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए ओवैसी ने मोदी सरकार से सात सवाल किए. उन्होंने कहा, कश्मीर में हमारे 124 सिपाही मारे जा चुके हैं, लेकिन आपकी कश्मीर नीति क्या है? ओवैसी ने कहा कि यह सरकार दलितों से मोहब्बत के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं, लेकिन जिस जज ने एससी/एसटी एक्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में फैसला दिया, उन्हें एनजीटी का जज नियुक्त कर दिया गया. सरकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह एससी/एसटी एक्ट पर अध्यादेश लाए.

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इसी क्रम में ओवैसी ने कहा, फिक्स डिपॉजिट छह परसेंट हैं, महंगाई दर छह फीसदी है, आप की क्या नीति है. उन्होंने कहा, 'मेरा सरकार से सवाल है आप कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं या दलित-मुस्लिम मुक्त भारत चाहते हैं. सरकार की नीति ने देश में भय का माहौल पैदा कर दिया.'

मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए ओवैसी मशहूर शायर हबीब जालिब की नज्म़ को गलत तरीके से पढ़ गए. उन्होंने नज्म़ पढ़ते हुए कहा,

'तुम कहो शाखों के फूल फलने लगे.

तुम कहो शाखों पर फूल फलने लगे.,

तुम कहो चाक सीनों के सिलने लगे,

इस झूठ को ज़ेहन की लूट को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता.

तुमने लूटा है सदियों-सदियों हमारा सकूं,'

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ

चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ

तुम नहीं चारागर कोई माने मगर, नहीं माने

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

दरअसल सदन में कम समय होने की वजह से उनके शब्द लड़खड़ा गए और हबीब जालिब की नज्म के शब्दों को इधर-उधर कर दिया. जिस नज्म को पढ़ते हुए ओवैसी के शब्द लड़खड़ाए उसका शीर्षक 'दस्तूर' है. इसे पढ़िए.

दीप जिस का महल्लात ही में जले

चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले

वो जो साए में हर मस्लहत के पले

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ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से

मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से

क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को जहल की रात को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो

जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो

इस खुले झूठ को ज़ेहन की लूट को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ

चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ

तुम नहीं चारागर कोई माने मगर

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

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