नरेंद्र मोदी बिहार के नहीं हैं, लेकिन इस बार बिहार में चुनाव मोदी के नाम के ही इर्द-गिर्द घूमेगा. इसकी बिसात बिछ चुकी है. जिस तेज आवाज में नीतीश कुमार से लेकर जेडीयू का हर विधायक मोदी का नाम आते ही बिफर रहा है, उससे लगने लगा है कि मोदी चुनावी मुद्दा हो जाएं, ऐसा नीतीश भी चाहते हैं. इसके पीछे एक अहम कारण यह है कि यदि बिहार में मोदी की छवि मुस्लिम विरोधी बन गई तो राज्य के 17 फीसदी मुस्लिम वोटर एकमुश्त मोदी का विरोध करने वाले की झोली में गिरेंगे ही.
ऐसे में नीतीश का संकट यह है कि बीजेपी और आरएसएस पहले से लालू यादव के निशाने पर रहे हैं और मुस्लिम वोटर इसे अच्छे से समझते हैं. ऐसे में नीतीश कुमार गठबंधन तोड़ने से पहले मोदी के विरोध को उस स्तर पर ले जाना चाहते हैं जहां उनका मोदी विरोध बीजेपी और संघ से बड़ा हो जाये.
गठबंधन तोड़ने से पहले नीतीश के लिये ऐसा करना इसलिये जरूरी है, क्योंकि गोधरा कांड हो या गुजरात हिंसा, नीतीश एनडीए में ना सिर्फ बने रहे, बल्कि बतौर कैबिनेट मंत्री मलाई खाते रहे, और अब उन्हें मोदी विरोध के सुर से अपने पुराने समझौतों पर रेड कारपेट बिछानी है. अगर ऐसा नहीं होता है तो नीतीश के सामने संकट अपने ही सांसदों को संभालने का भी होगा, जिन्हें 2014 में दोबारा चुनाव लड़ना है. क्योंकि जेडीयू के 20 सांसदों की जीत के पीछे बीजेपी का 13 फीसदी ऊंची जाति का वोट बैंक भी है.
यदि बीजेपी का ऊंची जाति का वोटर जेडीयू के साथ न हो तो उनके उम्मीदवारों के सामने मुश्किल होगी. यानी गठबंधन टूटा तो नीतीश की सरकार पर तो आंच नहीं आएगी, लेकिन 2014 की दौड़ में नीतीश हांफने जरूर लगेंगे. और अगर सवाल तीसरे मोर्चे या फेडरल मोर्चे का भी उठा तो नीतीश एक छोटे खिलाड़ी की भूमिका में आ जाएंगे, क्योंकि उनसे बड़े खिलाड़ी की फेहरिस्त में मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता और तेलंगाना के चंद्रशेखर तक हो सकते हैं और दोबारा एनडीए में जाने का रास्ता भी संकरा होगा.