पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का दिल्ली के एम्स में गुरुवार शाम को 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया. वाजपेयी के निधन से देशभर में शोक की लहर दौड़ गई. पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने देश के कई कद्दावर नेता उनके घर पहुंचे. वाजपेयी न सिर्फ राजनेता और प्रखर वक्ता थे बल्कि वह एक कवि, लेखक पत्रकार भी रहे. दिलचस्प बात यह है कि वाजपेयी और उनके पिता दोनों ने साथ-साथ कानून की पढ़ाई भी की थी.
अटल बिहारी वाजपेयी ने वर्ष 1947 में कानपुर के डीएवी कॉलेज में एमए-राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पूरी की. तब कानपुर का डीएवी कॉलेज आगरा यूनिवर्सिटी से संबद्ध था. तब डीएवी कॉलेज के राजनीति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. शांति नारायण वर्मा थे. पढ़ाई में मेधावी अटल जी ने कॉलेज में टॉप किया था और आगरा विश्वविद्यालय की मेरिट सूची में दूसरे नंबर पर थे. पहले नंबर पर अटल बिहारी के मित्र त्रिलोक नाथ श्रीवास्तव थे. तीसरी रैंक गिरिराज किशोर गहराना और चौथी ऊषा गुजराल की थी. डीएवी कॉलेज के राजनीति विज्ञान विभाग में लगी मेरिट सूची में आज भी अटल बिहारी वाजपेयी का नाम दर्ज है.
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अटल जी के मित्र और कानपुर निवासी राम मोहन बताते हैं 'अटल जी और उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ने एक साथ डीएवी कॉलेज से एलएलबी का रिफ्रेशर कोर्स किया था. बाप-बेटे एक साथ क्लास में जाने से शरमाते थे इसलिए जिस क्लास में अटल जी जाते थे उसमें उनके पिता नहीं जाते थे.' पिता और पुत्र डीएवी हॉस्टल के कमरा नंबर 104 में बड़ी सादगी से रहते थे. वे खुद खाना बनाकर खाते थे और कपड़े भी स्वयं ही धुलते थे. डीएवी में पढ़ाई के दौरान ही अटल जी आरएसएस के संपर्क में आए और राजनीति से जुड़ गए.
राम मोहन बताते हैं 'डीएवी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान अटल जी का राजनीति शास्त्र विभाग के शिक्षक डॉ. मदन मोहन पांडेय से गहरा लगाव हो गया. जिस दिन पांडेय जी कॉलेज में क्लास लेने नहीं आते थे उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी किसी साथी की साइकिल मांगकर कानपुर के पीरोड स्थित मकान संख्या 108-88 में रहने वाले अपने गुरू जी के घर पहुंच जाते थे. 'जब गुरुजी नहीं मिलते तो उनकी पत्नी शारदा देवी से अनुमति लेकर घर के बाहर ही चबूतरे पर पढ़ाई करने लगते थे. यह सिलसिला तब तक चलता जब तक गुरुजी नहीं आ जाते.
पीएचडी नहीं कर पाए, पत्रकार बन गए
कानपुर से पढ़ाई पूरी होने पर वर्ष 1947 के आखिरी महीने में अटल बिहारी वाजपेयी पीएचडी करने लखनऊ आ गए. हालांकि उनकी पीएचडी तो पूरी नहीं हो पाई लेकिन यहीं से उनके पत्रकारिता जीवन की नींव भी पड़ी. लखनऊ के सदर बाजार में राष्ट्रधर्म पत्रिका का कार्यालय वर्ष 1947 में खुला. इस पत्रिका के पहले संपादक अटल बिहारी वाजपेयी बनाए गए. इसके बाद 1948 में शुरू हुई पांचजन्य पत्रिका के पहले संपादक भी अटल बिहारी बने और वह 1952 में सदर बाजार लखनऊ से प्रकाशित दैनिक स्वदेश के संपादक भी वर्ष 1952 तक रहे.
इस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी पर संघ के प्रचारक का भी दायित्व था. लखनऊ में लोगों से संपर्क करने की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी. रहने का तो कोई स्थाई ठिकाना नहीं था. वे लखनऊ में कुछ दिन वर्तमान उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के पिता पंडित केदार नाथ शर्मा (पाधा जी) के यहां भी रुके. यहीं पर पहले से पंडित दीन दयाल उपाध्याय भी रहा करते थे. बाद में उनका आवास मारवाड़ी गली के प्रसिद्ध कलंत्री निवास में भी रहा. कुछ दिन वाजपेयी ने लखनऊ के ए.पी. सेन रोड स्थित एक भवन में जिसे अब किसान संघ के कार्यालय के नाम से जाना जाता है, को अपना ठिकाना बनाया.
दोस्ती-यारी के शौकीन अटल बिहारी वाजपेयी ने जल्द ही लखनऊ के हर मोहल्ले में अपना एक मित्र बना लिया था. हीवेट रोड स्थित बजरंग शरण तिवारी उनके अभिन्न मित्रों में से एक थे. इनके आवास पर भी वाजपेयी अक्सर रहने के लिए आते थे.
आलोचना का भी अलग अंदाज
वर्ष 1957 का लोकसभा चुनाव अटल बिहारी बाजपेयी ने बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ से जनसंघ प्रत्याशी के तौर पर लड़ा. चुनाव प्रचार के दौरान पहली बार लखनऊ की जनता को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी वाकपटुता और भाषण में चुटकी लेने का अंदाज का कायल बना दिया. इसी चुनाव के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी की लखनऊ के झंडे वाला पार्क में सभा थी. सभा में अटल काफी देर से पहुंचे. मंच पर पहुंचते ही उन्होंने माइक संभाला और कहा जिस प्रदेश में 'चंद्र' और 'भानु' दोनों ही गुप्त हों. टूटी-फूटी सड़कें हों वहां मेरा देर से पहुंचना स्वाभाविक ही है. 'कांग्रेस की सरकार में चंद्र भानु गुप्त उस वक्त प्रदेश के मुख्यमंत्री थे.
अटल बिहारी वाजपेयी ने व्यंग्यात्मक लहजे में न केवल प्रदेश की सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया बल्कि अपनी देरी का कारण भी बता दिया. लखनऊ और मथुरा से अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव हार गए लेकिन बलरामपुर की जनता ने उन्हें संसद पहुंचा दिया. हालांकि जनसंघ ने जब वाजपेयी को अपना उम्मीदवार घोषित किया तब उन्हें बलरामपुर में कोई पहचानता ही नहीं था. प्रत्याशी घोषित होने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से रेलगाड़ी द्वारा बलरामपुर की ओर रवाना हुए.
बलरापुर में वाजपेयी की ट्रेन रात दस बजे पहुंची. उन्हें लेने के लिए पहुंचे जनसंघ के जिला महामंत्री राम दुलारे पाठक तो अटल बिहारी वाजपेयी को पहचान नहीं पाए. ट्रेन के डिब्बों और प्लेटफार्म पर काफी ढूढ़ने के बाद जब पाठक प्लेटफार्म से बाहर निकलने लगे तो पीछे से एक आवाज ने उन्हें चौंका दिया 'पाठक जी आप किसे ढूंढ़ रहे हैं?' पाठक ने भी प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति की ओर मुखातिब होते हुए कहा 'अटल जी आने वाले थे. शायद वह नहीं आए हैं.' तब वह व्यक्ति हंस पड़ा और कहा 'पाठक जी मैं ही हूं अटल बिहारी वाजपेयी.'
घोड़ी पर बैठकर किया था प्रचार
बलरामपुर से पहली बार सांसद बने अटल बिहारी वाजपेयी साइकिलों के जत्थे के साथ गांव-गांव, घर-घर जाकर लोगों से वोट मांगते थे. जिस गांव में रात हो जाती थी वहीं डेरा जमा लेते थे. बलरामपुर में बीजेपी के वयोवृद्ध नेता लाटबक्श सिंह बताते हैं 'वर्ष 1957 में बलरामपुर में चुनाव प्रचार के दौरान अटल बिहारी वाजपयी चौखड़ा गांव में रात्रि विश्राम कर रहे थे. रात भर मूसलाधार बारिश हुई तो रास्तों में पानी भर गया. सुबह उन्हें उतरौला और रेहरा बाजार में चुनावी सभा को संबोधित करना था.
स्थानीय कार्यकर्ताओं ने चंदा लगाकर अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव प्रचार के लिए एक जीप मुहैया कराई थी. ड्राइवर ने कीचड़ में गाड़ी के न चलने की बात कही. तब पालकी का इंतजाम किया गया लेकिन अटल बिहारी ने इसमें बैठने से इंकार कर दिया. इसके बाद वह एक परिचित की घोड़ी पर बैठकर उतरौला पहुंचे और यहां जनसभा को संबोधित किया. अटल बिहारी वाजपेयी का बलरामपुर से राजनीतिक सफर वर्ष 1957 से 1971 तक रहा हालांकि वर्ष 1962 के चुनाव में उन्हें कांग्रेसी नेता सुभद्रा जोशी से हार का सामना करना पड़ा था.