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अयोध्या विवाद: क्‍या, कब और कैसे?

अयोध्या की ज़मीन का टुकड़ा जितना छोटा है, उतना ही बड़ा है इस ज़मीन से जुड़ा विवाद. यह विवाद आस्था को अदालती मान्यता दिलाने के मुकदमे से शुरू हुआ और धीरे-धीरे बदल गया ऐतिहासिक कानूनी जंग में कि अयोध्या के रामकोट गांव के प्लॉट नंबर 159/160 का मालिक कौन है?

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अयोध्या की ज़मीन का टुकड़ा जितना छोटा है, उतना ही बड़ा है इस ज़मीन से जुड़ा विवाद. यह विवाद आस्था को अदालती मान्यता दिलाने के मुकदमे से शुरू हुआ और धीरे-धीरे बदल गया ऐतिहासिक कानूनी जंग में कि अयोध्या के रामकोट गांव के प्लॉट नंबर 159/160 का मालिक कौन है?

अयोध्या की विवादित ज़मीन के बारे में ज़्यादातर लोग यही समझते हैं कि यह मुकदमा निर्मोही अखाड़े और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के बीच है. लेकिन असल में विवादित ज़मीन पर मुकदमेबाज़ी की नींव अयोध्या के एक ऐसे शख्स ने रखी, जो ज़मीन पर ना तो मालिकाना हक़ चाहता था और ना ही किसी को बेदखल करना.

22-23 दिसंबर 1949 की रात अयोध्या में विवादित परिसर में मूर्तियां रख दिए जाने का मामला गर्म था. प्रशासन ने विवादित परिसर पर ताला तो जड़ दिया, लेकिन मूर्तियों को जस का तस रहने दिया. विवादित परिसर पर 5 जनवरी 1950 को अयोध्या नगर पालिका के चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर दिया गया.

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16 जनवरी 1950, अयोध्या के विवादित परिसर पर ताला लटका था जहां ना आरती हो सकती थी, ना अज़ान. ऐसे में अयोध्या के निवासी गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज एन एन चड्ढा की अदालत में अर्ज़ी देकर कहा कि यहां राम चबूतरा और सीता रसोई में वह 1934 से ही पूजा-पाठ करते रहे हैं, लिहाज़ा उन्हें पूजा-अर्चना और भगवान को भोग चढ़ाने की अनुमति दी जाए. सिविल जज ने उन्हें विवादित परिसर में पूजा करने और भगवान को भोग लगाने की सशर्त अनुमति दे दी.

कुछ स्थानीय मुसलमानों ने सिविल जज के आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन 26 अप्रैल 1955 को हाईकोर्ट ने सिविल जज के अंतरिम आदेश की पुष्टि करते हुए याचिका खारिज कर दी.

गोपाल सिंह विशारद की याचिका पर सिविल जज ने जो आदेश दिया, उसके बाद अयोध्या में करीब 9 साल तक कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं मची. {mospagebreak}

अयोध्या, 1959
निर्मोही अखाड़े ने विवादित ज़मीन पर पहली बार खुलकर दावा ठोंका. निर्मोही अखाड़े ने अयोध्या की विवादित ज़मीन को अपने न्यास की संपत्ति बताते हुए सिविल जज की अदालत में याचिका दायर कर दी. 1959 के वाद संख्या 26 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित परिसर के रिसीवर प्रियदत्त राम और यूपी सरकार को प्रतिवादी बनाया.

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निर्मोही अखाड़े का दावा था कि विवादित ढांचे में निर्मोही अखाड़े ने ही मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा कराई. जहां अनादि काल से निर्मोही अखाड़े के साधु-संत पूजा करते रहे हैं. इस मंदिर का प्रबंध भी निर्मोही अखाड़ा ही देखता रहा है. लेकिन 29 दिसंबर 1949 से यहां रिसीवर बैठा दिया गया. निर्मोही अखाड़े ने अदालत से मांग की कि रिसीवर हटाकर विवादित परिसर का प्रबंध उसे दोबारा सौंपा जाए.

दावे का आधार क्या है.
निर्मोही अखाड़े की याचिका पर अदालती सुनवाई आगे बढ़ने से पहले ही विवादित ज़मीन पर मालिकाना हक़ का एक और मुकदमा शुरू हो गया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने अयोध्या के मोहम्मद हाशिम समेत पांच लोगों के ज़रिए 18 दिसंबर 1961 को फैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में याचिका दायर की.

1961 के इस वाद संख्या 12 में गोपाल सिंह विशारद को प्रतिवादी बनाते हुए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दावा किया है कि विवादित परिसर को लोग बाबरी मस्जिद के नाम से जानते हैं. जहां ज़बर्दस्ती मूर्तियां रख दी गईं. लिहाज़ा यहां से मूर्तियां हटाई जाएं और बाबरी मस्जिद और उससे सटे कब्रिस्तान की ज़मीन वक्फ बोर्ड को सौंपी जाए.

गोपाल सिंह विशारद ने पूजा की इजाज़त मांगी थी, लेकिन निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के मुकदमों के बाद फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में अयोध्या के विवादित परिसर का मसला मालिकाना हक़ के कानूनी दांवपेंच में उलझ गया. 1964 में सिविल जज की अदालत ने सभी मुकदमों में इश्यू तय कर दिया और सुनवाई शुरू हो गई.{mospagebreak}

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अगले 22 साल तक विवादित ज़मीन को लेकर सिविल जज की अदालत में सुनवाई चलती रही. निर्मोही अखाड़ा इसे राम जन्मस्थान बताता रहा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बाबरी मस्जिद. मालिकाना हक के इस झगड़े के बीच में था गोपाल सिंह विशारद की आस्था का मुकदमा.

ताला खोलने का आदेश कैसे मिला
विशारद की ही 1950 वाली याचिका को आधार बनाते हुए फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने 21 जनवरी 1986 को मुंसिफ सदर की अदालत में वाद दाखिल कर दिया.
उमेश चंद्र पांडेय की मांग थी कि अयोध्या के विवादित परिसर का ताला खोला जाए और वहां सबको पूजा और दर्शन करने की छूट दी जाए. फैजाबाद के मुंसिफ सदर की अदालत ने एक हफ्ते बाद फैसला सुनाया. उन्होंने कहा कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के 1961 के मुकदमे की फाइल की गैरमौजूदगी में ऐसा कोई आदेश नहीं दिया जा सकता.

अयोध्या, 1 फरवरी 1986
मुंसिफ सदर के फैसले के खिलाफ़ उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के ज़िला जज की अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज़ के एम पांडेय ने विवादित परिसर का ताला खोलने का आदेश दिया.

ज़िला जज़ के इस आदेश के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों का नया दौर शुरू हुआ. ताला खोलने के फैसले के खिलाफ़ मोहम्मद हाशिम ने 8 फरवरी 1986 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी. वे चाहते थे कि विवादित परिसर का ताला खोलने के फैसले पर रोक लगाई जाए.

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अयोध्या की विवादित ज़मीन से जुड़े मामले अब तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में किसी अंज़ाम तक नहीं पहुंचे थे. विवादित परिसर तब तक बड़ा सियासी मुद्दा बन चुका था और मामला दिन ब दिन उलझता जा रहा था.
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करके फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमो की सुनवाई हाईकोर्ट में चलाने की मांग की. यूपी सरकार का कहना था कि इन मुकदमों के वादियों के बीच आपस में टकराव से अमन-चैन बिगड़ने का खतरा है. इससे विवादित ज़मीन पर यथास्थिति बहाल रखने में भी परेशानी हो सकती है.{mospagebreak}
इलाहाबाद, 14 अगस्त 1989
इलाहाबाद हाईकोर्ट की फुल बेंच ने यूपी सरकार की याचिका मंजूर कर ली. हाईकोर्ट ने अयोध्या में विवादित परिसर की यथास्थिति बहाल रखने का आदेश दिया. साथ ही गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमों की सुनवाई के लिए हाईकोर्ट के तीन जजों की स्पेशल बेंच का गठन कर दिया.

1950 से 1989 तक फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में चल रहे मुकदमों का उलझा जाल अब हाईकोर्ट को सुलझाना था. चार मुकदमे पहले से थे और हाईकोर्ट में मामला आते ही सामने आ गई एक और याचिका, जिसे हाईकोर्ट के पूर्व जज देवकीनंदन अग्रवाल ने रामभक्तों की ओर से दाखिल किया था.

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देवकीनंदन अग्रवाल ने श्री रामलला विराजमान और श्री राम जन्मस्थान समिति नाम के हिंदू समूहों की ओर से याचिका पेश की. उनकी दलील थी कि विवादित ज़मीन पर हिंदू लोग सनातन काल से पूजा करते आए हैं. यहां का भवन जर्जर हो चुका है और अब राम भक्त वहां नया भव्य मंदिर बनाना चाहते हैं, लिहाज़ा उन्हें मंदिर बनाने से रोका ना जाए.

अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने विवादित परिसर से सटी 2.77 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने हाईकोर्ट में अपील की, तो हाईकोर्ट ने ज़मीन का मालिकाना हक़ ना बदलने और स्थायी निर्माण ना करने का निर्देश दिया.{mospagebreak}

1989 से 1994 तक का दौर अयोध्या कांड के नाम रहा. हिंसा, तोड़-फोड़ और सियासी रस्साकशी के चक्कर में ज़मीन के मालिकाना हक़ के मुकदमों में कोई प्रगति नहीं हुई. इससे जुड़ी कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचीं.फिर 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या ज़मीन विवाद से जुड़े सभी अदालतों के अंतरिम आदेशों को खारिज कर दिया और निर्देश दिया कि हाईकोर्ट का फैसला आने तक अयोध्या में यथास्थिति बहाल रखी जाए.

सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद विवादित ज़मीन के मुकदमों की सुनवाई तेज़ हुई.23 जुलाई 1996 से विवादित ज़मीन के मालिकाना हक की याचिकाओं पर सुनवाई का अंतिम दौर शुरू हुआ. अब तक सिर्फ दावे करते रहे याचिकाकर्ताओं को अब अपने दावों के समर्थन में सबूत और गवाह पेश करने थे.

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अयोध्या की विवादित ज़मीन के इस टुकड़े को लेकर हिंदू और मुसलमान- दोनों 16 जनवरी 1950 से ही अदालत में यही दावा कर रहे थे कि ये उनका धर्मस्थान है. फिर जब अदालत में सबूत पेश करने की बारी आई, तो अपना-अपना मालिकाना हक़ साबित करने के लिए सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा अपने-अपने दस्तावेज़ों के साथ पेश हो गए. इसमें सबसे अहम था रेवेन्यू रिकॉर्ड.., लेकिन उस पर भी विवाद था. लिहाजा 23 मई 1990 को हाईकोर्ट ने मौका मुआयना करने के लिए कमीशन नियुक्त कर दिया. 18 सितंबर 1990 को हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि 1861 के राजस्व बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 163 और 1837 के बंदोबस्त के मुताबिक प्लॉट नंबर 159 और 160 का सर्वे करके रिपोर्ट पेश की जाए.

 26 फरवरी 1991 को कमिश्नर जे पी श्रीवास्तव ने अपनी रिपोर्ट अदालत में पेश की, लेकिन दोनों पक्षों की बहस के बाद हाईकोर्ट ने 8 जुलाई 1991 को ये रिपोर्ट रद्द कर दी और विवादित ज़मीन से जुड़े याचिकाकर्ताओं को सबूत पेश करने को कहा.
अपने-अपने सबूतों के साथ हर याचिकाकर्ता के पास गवाहों की फौज थी. विवादित ज़मीन के पहले वादी गोपाल सिंह विशारद ने 3 गवाह पेश किए, तो निर्मोही अखाड़े ने 20 और देवकीनंदन अग्रवाल ने 16 और सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड ने 28 गवाह पेश कर दिए.

सबूतों और गवाहों की जिरह में वक्त लग रहा था. इसलिए 2002 में अयोध्या ज़मीन विवाद के मुकदमों की रोज़ाना सुनवाई शुरू कर दी गई. हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई तेज़ हुई, तो अदालत ने 5 मार्च 2003 को इस मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सबूत ढूंढने की जिम्मेदारी सौंपी और वो भी जल्द से जल्द.

एएसआई की टीम अयोध्या में विवादित परिसर में खुदाई करके ये पता लगाने में जुट गई कि यहां मंदिर था या मस्जिद..? लेकिन, इस खुदाई से भी जुड़ा एक विवाद हाईकोर्ट जा पहुंचा.

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