अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ दिनों में आ सकता है. इसे लेकर यूपी सहित देशभर में सुरक्षा एजेंसियां सतर्क हैं. विवादित भूमि पर स्थित बाबरी मस्जिद के ढांचे को 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया गया था. तब देश में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. अयोध्या मामले में नरसिम्हा राव बुरी तरह से फंस चुके थे. हालांकि, अगर वे समय रहते कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर देते तो शायद मस्जिद बच जाती, लेकिन राव ने ऐसा नहीं किया. आखिर उनके सामने ऐसी क्या मजबूरी थी?
बाबरी मस्जिद पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का समाधान बहुत सीधा था. वे यह चाहते थे कि दोनों धार्मिक समूहों को आपस में बात करके मस्जिद के पास ही एक मंदिर का निर्माण करना चाहिए और मस्जिद को सही-सलामत छोड़ देना चाहिए. उनका कहना था कि दोनों पक्षों में से कोई अगर इस पर सहमत नहीं होता है, तो अदालत का फैसला अंतिम होगा.
जब VHP ने की कारसेवा की घोषणा
30 अक्टूबर 1992 को विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने यह धमाकेदार घोषणा की थी कि 6 दिसंबर को विवादित ढांचे की बगल में मौजूद यूपी सरकार द्वारा अधिगृहीत भूमि पर कार सेवा की जाएगी. वीएचपी ने वादा किया था कि मस्जिद को हाथ नहीं लगाया जाएगा और प्रतीकात्मक पूजा बाहरी अहाते तक ही सीमित रहेगी. लेकिन इससे यह तय हो गया था कि 6 दिसंबर 1992 को करीब एक लाख हिंदू कारसेवक मस्जिद के नजदीक जमा होने वाले थे. तब यूपी में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली बीेजेपी की सरकार थी.
राज्य सरकार को हटाने का दबाव
इंडिया टुडे मैगजीन के अनुसार, उस साल 19 नवंबर के बाद से ही खुफिया एजेंसियों की तरफ से यह दबाव आने लगा था कि राव को यूपी सरकार बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर देना चाहिए. राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति (CCPA) की 19 और 22 नवंबर को हुई दो बैठकों में इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) ने यह रिपोर्ट दी थी कि आरएसएस के लोग ढांचे को गिराना चाहते हैं. इसलिए आईबी ने कहा था कि कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर हालात संभाल लेना चाहिए, क्योंकि 22 और 24 नवंबर को ही कोई सख्त कार्रवाई की जा सकती है, उसके बाद कोई कार्रवाई की गई तो देश में बड़े पैमाने पर टकराव हो जाएगा.
तब कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह भी इस बात के लिए दबाव बना रहे थे. तब राव ने सिर्फ कानूनी पहलुओं पर ही ध्यान दिया, लेकिन उन कानूनी पहलुओं पर नहीं जो संविधान के मुताबिक उन्हें राज्य सरकार को बर्खास्त करने की क्षमता के रूप में मिला था.
कल्याण सिंह और संघ ने राव को बेवकूफ बनाया!
संघ परिवार के लोग यह चाहते थे कि किसी बड़ी कार्रवाई होने तक कल्याण सिंह की सरकार बनी रहे. इसलिए कल्याण सिंह ने अपने को नरम दिखाने की कोशिश की. उन्होंने 3 दिसंबर से ही नरसिम्हा राव सरकार को यह संदेश देना शुरू किया कि उनकी पार्टी पीएम के साथ पूरा सहयोग करने को तैयार हैं. राव की इस बात के लिए भी आलोचना की जाती है कि आखिर उन्होंने संघ परिवार के आश्वासन पर भरोसा कैसे कर लिया. क्या वे वास्तव में इतने भोले थे, या उन्होंने जानबूझकर एक चुप्पी साध रखी थी?
राष्ट्रपति शासन के बारे में राव ने क्या कहा
इसके बाद जनवरी 1993 में नरसिम्हा राव के एक इंटरव्यू में जब इंडिया टुडे ने उनसे यह सवाल किया कि उन्होंने सख्त कार्रवाई करते हुए प्रदेश सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया तो उन्होंने कहा था, 'अगर उन्हें मस्जिद ध्वस्त ही करना था, इसका कोई भी तरीका हो सकता था. हमारे पहुंचने से पहले ही उसे उड़ाया जा सकता था. राष्ट्रपति के दस्तखत से उन्हें नहीं समझाया जा सकता था. तब किसी राज्य सरकार की जिम्मेदारी भी नहीं रहती.'
राव ने कहा, 'मुझे मस्जिद की अधिक चिंता थी. मुझे आश्वासनों पर भरोसा करना ही पड़ता. संविधान की मर्यादा की रक्षा भी आवश्यक थी. सभी वर्गों के लिए जो बात सही होती मुझे उसका ध्यान रखना था. मैं इन सबकी अनदेखी कर अपनी पर ही कायम नहीं रह सकता था. मैं नहीं समझता कि किसी दूसरे प्रधानमंत्री ने ऐसी हालात में इससे भिन्न रवैया अपनाया होता.'
राव ने आपात योजना बनाने को कहा था
पत्रकार विनय सीतापति ने अपनी किताब 'आधा शेर' में कहा है कि बिगड़ते हालात में नरसिम्हा राव ने गृह सचिव माधव गोडबले को मस्जिद का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की आपात योजना बनाने को कहा था. उन्होंने राव को एक गुप्त योजना भेजी भी. इस योजना में केंद्रीय बलों द्वारा बाबरी मस्जिद पर अधिकार के तरीकों का उल्लेख था. इसमें लिखा था कि अनुच्छेद 356 को लागू करना होगा. साथ ही इसमें यह चेतावनी भी दी गई थी कि ढांचे की सुरक्षा को कुछ घंटों के लिए खतरा हो सकता है. तब एसबी चव्हाण गृह मंत्री थे. गृह मंत्रालय ने अपनी राय रखी कि यदि यूपी में राष्ट्रपति शासन लागू करना है तो इसे 6 दिसंबर से पहले करना होगा.
शायद ये थीं राव की मजबूरियां
इंदिरा गांधी के विपरीत नरसिम्हा राव हिंसक टकराव से बचने को प्राथमिकता देते थे. असल में कल्याण सिंह ने पूरे नवंबर महीने में कोई गलती नहीं की थी. अगर राव उस समय 356 का इस्तेमाल करते तो सुप्रीम कोर्ट उनके फैसले को यह कहकर असंवैधानिक करार दे सकता था कि अभी कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी नहीं है.
इसके अलावा कुछ स्रोतों में यह भी कहा गया है कि राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCPA) में इस बात को लेकर आमराय नहीं थी. 'आधा शेर' के मुताबिक उस समय के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से राव के रिश्ते भी अच्छे नहीं थे. अगर शर्मा पीएम राव की यह सिफारिश पुनर्विचार के लिए वापस कर देते तो इन आरोपों को बल मिलता कि केंद्र सरकार संविधान के खिलाफ काम कर रही है.
एक और गलत समीकरण था उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का. यूपी के राज्यपाल यदि राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करते तो नरसिम्हा राव यूपी सरकार को बर्खास्त करने के लिए इसको आधार बना सकते थे. लेकिन तत्कालीन राज्यपाल बी. सत्यनारायण रेड्डी की नियुक्ति राव के पूर्ववर्ती पीएम वी.पी. सिंह ने की थी. इसलिए इस बात की आशंका थी कि वह केंद्र के प्रभाव में नहीं आते. 1 दिसंबर 1992 को रेड्डी ने केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा था, 'सामान्य कानून-व्यवस्था की स्थिति विशेषकर सांप्रदायिक मोर्चे पर संतोषजनक है.' शायद यही वे समीकरण थे जिसकी वजह से राव अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करने से हिचक गए.