अयोध्या जो हिन्दू मान्यताओं में भगवान राम की जन्मभूमि है, लेकिन मुगल काल में ये नगर बाबरी मस्जिद की वजह से मशहूर हुआ. ये इतिहास पांच सौ साल पुराना है. लेकिन 19वीं सदी में इसके वजूद को लेकर जो दावा बदला, उसने नगर के साथ देश की सियासत में भी भूचाल ला दिया. विवाद की सुगबुगाहट उस नगर में सुनाई देने लगी, जो सरयू नदी के किनारे बेहद शांत नजर आती थी.
अयोध्या अपने आप में ऐसी नगरी हैं, जिसकी तबीयत को बाहरियों का तेवर कभी रास नहीं आया. अपनी बुनियाद के साथ ही इस नगर ने किसी के आगे घुटने टेकना नहीं सीखा. यही वजह है...कि अयोध्या नगरी को जीता नहीं जा सका है.
इमामे हिंद हैं भगवान राम
अयोध्या का अतीत कुछ ऐसे बोलता है. उसके झरोखों से गंगा-जमुनी तहजीब की ऐसी नजीर झांकती है, जिसका गुमां इकबाल जैसे शायर भी बयां कर गए.
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द.
अल्लामा इकबाल जैसे शायर राम को हिंद का इमाम बता गए. ये बात आजादी के पहले की है. उस दौर में भी मंदिर और मस्जिद का वजूद अपनी जगह को लेकर उलझ चुका था. मगर शायर इकबाल की वो मिसाल अयोध्या का माहौल कुछ और बताती है.
हिंदू-मुस्लिम दोनों करते साथ-साथ पूजा और इबादत
उस दौर का माहौल आज जैसा उग्र नहीं था, अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था के मुताबिक हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लिए पूजा पाठ की अलग-अलग जगह तय थी. अपने वक्त पर अजान और अपने समय पर राम का जयकारा दोनों गूंजता. इसमें शरीक दोनों समुदाय के लोग होते थे.
मुस्लिम घरों में रामलला के कपड़े सिलते, खड़ाऊं बनते, रमजान के रोजे भी हिंदू महंतों की मौजूदगी में खुलते. ये मिसाल और परंपरा तो आज भी कायम है, जबकि सियासतदानों ने समाज में जहर घोलने की हर संभव कोशिश की है, लेकिन उनके मजबूत इरादों को हिला नहीं सके.
मजहबी मेलजोल की मिसाल में बाबू भाई जैसे मुस्लिम कारीगर और हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञानदास जी जैसे लोग है. बाबू भाई आज भी रामलला के कपड़े सिलते हैं, तो वहीं महंत ज्ञानदास उनके घर अक्सर हनुमान चालीसा सुनाने जाते हैं.
राम-रहीम की साझी विरासत बिखरी कैसे? देश आजाद होते ही नमाज और रामनामी के बीच भेद कैसे बढ़ने लगा? मजहबी आस्था का वो साझा समूह गान तो अयोध्या में मंदिर और मस्जिद की खिंची लकीर के बीच भी सदियों से सुना जा रहा था, लेकिन देश आजाद होते ही धर्म के एकालाप में बदल गया. वो साल था 1949.
अयोध्या में चमत्कार का इफेक्ट
देश को आजाद हुए दो साल हो चुके थे. देश के बंटवारे के साथ जो सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा, अपने-अपने धर्म को लेकर विचारों में कट्टरता आई. ये वही दौर था जब महात्मा गांधी की हत्या हुई. हिंदू महासभा जैसे संगठनों का परचम लहराया. और 1949 के उस साल अयोध्या में एक चमत्कार भी हुआ.
ऐसा उस दौर के साधू संतों ने दावा किया. 22 दिसंबर की उस सर्द रात बाबरी मस्जिद के अंदर रामलला की मूर्ति प्रकट हुई. मगर सच कुछ और था. अगले ही दिन अयोध्या पुलिस ने जो एफआईआर दर्ज की उसमें संत अभिरामदास, रामशकल दास और सुदर्शन दास को नामजद किया गया.
आरोप लगा ये तीन लोग अपने 50-60 समर्थकों के साथ आधी रात को विवादित परिसर में घुसे और भगवान राम की मूर्ति रख दी. पुलिस के मुताबिक ये पूरी कवायद धार्मिक माहौल बिगाड़ने, धर्मस्थल को अपवित्र करने के लिए किया गया. इस विवाद के साथ मस्जिद में ताला लग गया. अंग्रेजों की बनाई गई व्यवस्था खत्म हो गई, जिसमें दोनों समुदायों को नमाज और पूजा की मंजूरी मिली हुई थी. इसके बावजूद अयोध्या अपनी जगह उसी मजबूती के साथ खड़ा रहा.
अयोध्या के लिए सरजू सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि एक स्थिर रूपक भी है, जिस नगरी को लेकर पूरे देश की सियासत में खलबली मची, वो नगरी धार्मिक उन्माद और सियासी उथल-पुथल के सबसे भयानक दौर में भी शांत रही.
मुस्लिम घरों में रामलला के कपड़े पहले की तरह ही सिलते रहे, साधु-संतों के लिए खड़ाऊं मुस्लिम कारीगरों के हाथों बनते रहे. पूजा के लिए फूल की मालाएं बनती रहीं. पंचकोसी परिक्रमा से लेकर तमाम आयोजनों में मजहब की बंदिशें बिखरती रही.